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अप्रस्तुत प्रशंसा के कतिपय वाक्य भाव प्रवणता की दृष्टि से सटीक हैं१. मरुमण्डलो तृष्णावत्पषिकस्य वक्त्रविस्तारितमेवाजलिपेयं, पुनरन्तरा पिशाचेन पीतम् । २. अहो खलकुट्टया गुडेन सार्ध प्रतिस्पर्धा । ३. पिचुमन्दकन्दल्या रसाल रसस्य च कीदृशस्त्वया संयोगः ।
श्लेष्मे विकारा अपि यद्यस्मदारम्भाणां भङ्गमाधास्यन्ति । कहीं व्यञ्जना का प्रयोग हास्यरसोचित हैयत्र तादृशाः सुरूपा नृत्यकलाकुलास्तत्र किमस्मादृशां नतितुं योग्यं ।
हास्य रस के अन्य प्रयोग द्वितीय अंक में मनोरञ्जक हैं । इस अंक में हास्य का परम प्रकर्ष है। कवि की प्रतिभा प्रस्तुत परम्परित रूपक से स्पष्ट है
स्थाले स्मेरसरोरुहे हिमकणान् शुभ्रान्निधाचालतास्तद्रेणु मलयोद्भवं मधुकरान् दूर्वाप्रवालावली: । हंसी सद्यधिकेसरोत्करमपि प्रेङ्खच्छिखा दीपिकाः
सज्जाभून्नलिनी रखे रचयितु प्रातस्त्यमारात्रिकम् ।। ३.२।। चरित नायक के चरित्र का विकास नाट्यकला की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। महावीर की वाणी सुनने के पश्चात रोहिणेय का चरित्र सवत्तियों से आपूरित होता है। डाकू होने पर भी नायक का व्यक्तित्व कुछ-कुछ कवियों जैसा है। वासन्तिको को देखकर उसका हृदय नाच उठता है और वह कह उठता है
केचिद् वेल्लिवल्लभाभुजलताश्लेषोल्लसन्मन्मथाः केचित् प्रीतिरस प्ररूदपुलका कुर्वन्ति गीतध्वनिम् । केचित् कामित नायिकाधर दलं प्रेम्णा पिबन्त्यावरात्
किचित कूपित लोललोचनपुराः पद्म द्विरेफा इव ॥१.१०॥ प्रबद्ध रौहिणेय में एक कटघटनात्मक गर्भनाटक का समावेश छठे अंक में किया गया है। इस यग में नाटक के किसी अंक में छोटा-सा उपुरूपक समाविष्ट करने की रीति कतिपय कवियों ने अपनाई है।
किसी पात्र का छिपकर या अकेले ही रहकर रङ्गमञ्च पर दूसरों के विषय में अपनी भावनायें प्रकट करना नाटकीय दष्टि से रुचिकर होता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में किसी अन्य पाव की उपस्थिति के कारण गोपनीयता की सीमा नहीं रह जाती। रोहिणेय ऐसी स्थिति में प्रच्छन्न रहकर मदनवती को देखकर तर्क करता है
कि शृङ्गारमयों किम स्मरमयी कि हर्षलक्ष्मीमयी । रामभद्र ने इस नाटक में नत्य, गीत और वाद्य का लोकोचि 1 लम्बा कार्यक्रम प्रासंगिक रूप से द्वितीय अंक में पानी कराया है।
प्रबुद्ध रोहिणेय में नाट्यालंकारों का विशद सन्निवेश सकन है। तृतीय अंक का उद्देश्य ही नाट्यालंकार-प्रस्तुति है। इस नाटक के आद्यन्त अंकों में दृश्य सामग्री है, सूच्य अपवाद रूप से अंक में गभित हैं।
डाक-क्षेत्र में सवृत्तपरायण सन्तों के आने-जाने से बहुत-से डाकुओं की मनोवृत्ति में परिवर्तन हो सकता है। १९७२ ई० में जयप्रकाश नारायण के प्रयास से डाकओं का हृदय-परिवर्तन हुआ है, उसका प्रवुद्ध रौहिणेय पूर्वरूप प्रस्तुत करता है।
बन साहित्यानुशीलन
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