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स्थान व पद-विशेष को ध्यान में रखकर उस व्यक्ति के लिए विशिष्ट धर्म व नीति का विधान करना भी उचित समझा। समाज के प्रत्येक वर्ग व व्यक्ति के लिए, वैयक्तिक गुण व स्वभाव के आधार पर, पृथक्-पृथक् नैतिक कर्तव्यों का निर्धारण किया गया है। नैतिक आचरण का सामान्य, विशिष्ट, नैमित्तिक, आपद्धर्म के रूप में वर्गीकरण भारतीय मौलिक चिन्तन की देन है। 'धर्म' सम्बन्धी विवेचनों से भारतीय नीतिशास्त्र भरे पड़े हैं । विभिन्न जीवन-समस्याओं के सन्दर्भ में नैतिक मूल्यों के निर्धारण-हेतु विविध आख्यान भी मिलते हैं। उक्त विवेचनों से भारतीय चिन्तन की गम्भीरता व व्यापक दृष्टिकोण की पुष्टि होती है।
संक्षेप में, 'धर्म' मानव जीवन की एक आदर्शमूलक नैतिक व्यवस्था है जो सबके लिए उदात्तीकरण का मार्ग प्रस्तुत करती है । धर्म का विवेचन अपनी गम्भीरता के कारण बहुत सूक्ष्म है, और महापुरुषों के आचरणों के आधार पर ही सरलतया बोधगम्य हो सकता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति का यह उद्घोष है कि धर्म ही एकमात्र इहलौकिक व पारलौकिक दृष्टि से सहायक है, और किसी भी स्थिति में धर्म का त्याग करना श्रेयस्कर नहीं। धर्म ही माता-पिता है, धर्म से विहीन व्यक्ति का जीवन निरर्थक है इत्यादि सुवचन शास्त्रों में भरे पड़े हैं। धर्म के दश प्रकार शास्त्रों में बताए गए हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध । धर्म व दर्शन
___ समाज में चिन्तन की परिपक्वता आने की स्थिति में धार्मिक क्षेत्र में कुछ मूल प्रश्न उठ खड़े हुए, जिनके समाधान हेतु चितान-पद्धति आविष्कृत हई जो 'दर्शन' के रूप में प्रसिद्ध हुई । दर्शन के माध्यम से धर्म को तर्क-बुद्धि पर प्रतिष्ठित किया गया । धर्म, दर्शन के माध्यम से, महान सत्यों की बौद्धिक व्याख्या प्रस्तुत कर अपने को पुष्ट करता है। जहां धर्म मानवीय हृदय को संतुष्ट करता है, वहाँ दर्शन मस्तिष्क को। संक्षेप में, धर्म एक नौका है तो दर्शन उसकी पतवार।
जैन (श्रमण) सस्कृति में भी 'धर्म' का उक्त स्वरूप मान्य रहा है। जैन विचारधारा के अनुसार मिथ्यात्व, रामद्वेष आदि के कारण भव-सागर में या नरक-कूप में गिरते हुए प्राणी को बचाने वाला, तथा उसे जन्म-पंक से उबार कर, सत्पथ पर ला कर यात्मिक उत्थान कराते हुए, शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित कराने वाला (समता) धर्म है।
धर्म के बिना सुदेश, कुल, जाति, नीरोगता आदि सभी उसी तरह हैं जैसे आंख के बिना मुख। धर्म विश्व को पाचनताक देने वाला और विश्व का भरण-पोषण करने वाला एक कल्पवृक्ष है। जहां धर्म है, वहीं विजय होती है-यह समूची भारतीय नति का उदघोष है। जितना प्रेम व्यक्ति अपने स्त्री-पुत्रादि में करता है, उतना यदि जिनोक्त 'धर्म' से करे तो अनायास सख प्राप्त को। उत्तम धर्म से युक्त प्राणी नीच कुल का भी हो, तो वह उच्च देव बन जाता है । इन सुविचार-कणों के अतिरिक्त, जैन परम्परा में धर्म के स्वरूप के विषय में और भी अधिक बहुमूल्य चिन्तन प्राप्त होता है, जिसे यहां प्रस्तुत करना प्रसंगोचित होगा।
जैन परम्परा में 'ईश्वर' को सृष्टिकर्ता के रूप में नहीं माना गया, और सृष्टि को अनादि बताते हुए, मौलिक तत्त्वों में अनिहित परिणमनशील स्वभाव के कारण सृष्टि का सतत संचालन बता कर, तथा वैयक्तिक जीवन की विविधता में कर्म की कारणता प्रतिपादित कर ईश्वर की अनावश्यकता प्रतिपादित की गई । 'धर्म' का बहअभ्यासी स्वरूप:
इस प्रकार, जैन परम्परा में वस्तुगत 'स्वभाव' तथा 'कर्म' को वैदिक 'ईश्वर' का स्थानापन्न बना दिया गया है। 'कर्म' कोई अतिरिक्त तत्त्व नहीं, वह जीव व अजीव का ही एक परिणमन माना गया है, और उक्त परिणमन स्वभावजन्य है..उस दष्टिक र अधिक व्यापकता 'धर्म' की सिद्ध हो जाती है । वस्तुगत स्वभाव 'धर्म' है, वस्तुगत पर्याय/परिणमन 'द्रव्य-धर्म' कहे गए हैं, और धर्म व धर्मी में अविनाभाव एवं अभेद है, इसलिए जैन-परम्परा में 'धर्म' सवंद्रव्यव्यापी सत्ता-मात्र का प्रतिनिधित्व करता है. और इस प्रकार र वैदिक परम्परा के ब्रह्म (निर्गुण) के बहुत निकट आ जाता है।
धर्म वस्तु-मात्र का स्वभाव है, और सभी वस्तुओं में मोक्ष-प्राप्ति की दृष्टि से श्रेष्ठतम या सारभूत या उपादेय वस्तु आत्मा अतः आत्मा के शुद्ध परिणाम रूप स्वभाव को श्रेष्ठतम 'धर्म' के रूप में मान्यता दी गई।
'धर्म' आत्मा का निज स्वभाव है-इस कथन से फलितार्थ यह निकलता है कि वह ऊपर से लादा नहीं जा सकता । 'धर्म' • अन्तज्योति में, चैतन्य की दिव्य अन्तश्चेतना में निहित है । वह अन्तर से जागृत होता हुआ ही समग्र जीवन में प्रसार पाता
कसा निर्झर है जो आन्तरिक सदसद्-विवेक के रूप में मनोविकारों की कठोर चट्टानों को तोड़ कर उद्भूत होता है, और क्तिक जावन का बगिया को संयम व अप्रमाद से पूर्ण सदाचार की घास से हरा-भरा कर देता है, वह बाह्य प्रदर्शन की वस्त
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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