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का यथेच्छ भोगोपभोग करें, किन्तु धर्मतः-न्यायतः ही कर, संयम एवं मर्यादाओं की अवहेलना करके न करें। किसी के साथ अन्याय न करें, किसी का शोषण न करें, सबके साथ भद्रोचित व्यवहार करें, सदाचरण-निष्ठ हों, और एक श्रेष्ठ नागरिक के रूप में पारस्परिक सहयोग एवं सद्भावना के साथ गृहस्थ जीवन-यापन करें। वह सप्त कुव्यसनों के सेवन से बचें, श्रावक के अष्टमूलगुणों का पालन करें, कषाय मन्द रखें
और देवपूजा-गुरूपास्ति-स्वाध्याय-संयम-तप-दान-रूप दैनिक षट्कर्मों का सम्पादन करने में भी यथाशक्ति उपयोग लगायें । ऐसा करते रहने से उक्त उपासक या श्रावक की व्यवहार-सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझने तथा उसको अपने जीवन में उतारने में अभिरुचि होगी और फिर, वह गृहस्थ साधक श्रावक के बारह व्रतों को ग्रहण करके आंशिक या देश-संयम के पथ पर आरूढ़ होगा। जैसे-जैसे उसकी संसार-देहादि-संबंधी भोगों में विरक्ति बढ़ती जाती है, वह श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं (दों) में शनैःशनैः चढ़ता जाता है, तीसरी में त्रिकाल सायिक का नियम लेता है, चौथी में प्रोषधोपवास के रूप में उपवास का अभ्यास करता है, पाँचवीं में सचित्त-त्यागी होता है, छठवीं में रात्रि-भोजन एवं दिवा-मैथुन का सर्वथा त्याग कर देता है, सातवीं प्रतिमा में वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है, आठवीं में समस्त आरम्भ त्याग देता है, नवीं में गृहस्थी के मामलों में हस्तक्षेप करना या अपना मतामत देना भी छोड़ देता है और दसवीं में समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है। इस प्रकार साधनापथ में स्वयं को अभ्यस्त करता हुआ वह उदासीन श्रावक घर में रहता हुआ भी आत्मसाधन करता है। तदन्तर ग्यारहवीं प्रतिमा में वह सर्वथा गहत्यागी हो जाता है और मात्र दो वस्त्र रखने वाले क्षुल्लक का पद विधिवत् दीक्षापूर्वक ग्रहण कर लेता है । त्याग और संयम की भावना और अधिक बढ़ती है तो मात्र कौपीनधारी भैक्ष्यभोजी पाणिपात्री ऐल्लक पद धारण करता है। उस उत्कृष्ट श्रावक की चर्या एवं समस्त क्रियाएं प्रायः मुनिवत् होती हैं
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य।
भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टः चेलखण्डधरः॥' वास्तव में, साधु एवं श्रावक रूप दोनों ही श्रेणियों के जैन साधकों की लक्ष्यनिष्ठा, सत्यसंधित्सा तथा अभीप्सा में विशेष अन्तर नहीं होता। लक्ष्य के प्रति दोनों ही गतिमान हैं, अतएव दोनों की आचार-संहिता में भी मौलिक भेद नहीं है-जो अन्तर है वह केवल सामर्थ्य और गति की तीव्रता- मन्दता का है। प्रतिमाओं के माध्यम से, विशेषकर ग्यारहवीं प्रतिमा में तो, वह मुनिपद के उपयुक्त योग्यता एवं क्षमता प्राप्त करने के लिए अभ्यास करता है।
जैन धर्म में साधक का दूसरा वर्ग साधु का है । सर्वथा निष्परिग्रही, सर्वसंगत्यागी, महाव्रती निर्ग्रन्थ श्रमण तपस्वी मुनि ही मोक्षमार्ग का एकनिष्ठ साधक होता है। अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह नामक पांच महाव्रतों, ईर्ष्या-भाषा-एषणा-आदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापना नामक पांच समितियों, पंचेन्द्रियसंयम, षडावश्यक और अन्य सातगुण-केशलुञ्चन, अचेलकत्व (आचेलक्य, नग्नत्व या दिगम्बरत्व), अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थिति-भोजन (एक स्थान में ही खड़े-खड़े आहार करना) और एक वह भी मत--सब मिलाकर जैन मुनि के ये अट्ठाईस मूल गुण होते हैं । यथा
पंचयमहन्वयाई समिदीओ पंच जिणवरोदिट्टा । पंचेविदिरोहा छप्पिय आवसिया लोचो। अच्चेलकम्मण्हाणं खिदिसयणमदंतधस्सणं चेव।
ठिदिभोयणेगभत्तं मूलगुणा अठ्ठवीसा॥' इन मूलगुणों का एक जैन मुनि निरतिचार पालन करता है । वह प्रायः वनवासी होता है, बस्ती में नहीं रहता, निर्जन स्थान में ही रहता है, वर्षावास के चार महीनों के अतिरिक्त किसी एक स्थान में भी ४-५ दिन से अधिक नहीं रहता, वह दिन में केवल एक बार भिक्षा द्वारा प्राप्त योग्य-प्राशुक अन्न-जल, दाता के स्थान पर ही, खड़े-खड़े, हाथ में लेकर ग्रहण कर लेता है--इसीसे जैन मुनि को पाणिपात्री या पाणितलभोजी कहा है। उसका शेष समय ध्यानाध्ययन में, या अवसर हुआ तो गृहस्थों को धर्मोपदेश देने में भी व्यतीत होता है। मात्र पिच्छिका एवं कमंडलु के अतिरिक्त उसके पास कोई भी परिग्रह नहीं होता-ये भी चर्या में आवश्यक शौचोपकरणों के रूप में ही होते हैं । ऐसा ज्ञानध्यानतप-लीन योगी ही जैन साधु या मुनि होता है । वह समत्व का साधक एवं वीतराग होता है । आत्मसाधना की इस चरम अवस्था के लिए
१. र०क०श्रा०, १४७ २. मूलाचार, २/३
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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