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में भी एक अखाड़ा 'दिगम्बरी' नाम से प्रसिद्ध है । नंगे साधु तो आज भी कुम्भमेलों पर देखे जा सकते हैं। पिछली शताब्दी में वाराणसी-निवासी महात्मा तैलंगस्वामी नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित थे, सर्वथा दिगाम्बर रहते थे। बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं है किन्तु स्वयं गौतम बुद्ध ने अपने साधना-काल में कुछ काल तक दिगम्बर मुनि के रूप में तपस्या की थी। तत्कालीन अन्य श्रमण तीर्थकों-मक्खलिगोशाल, पूरण काश्यप, पकूध कात्यायन, अजित केशकंबलिन, संजय वेलट्ठि पुत्त--स्वयं तथा उनके अनुयायी साधु प्रायः नंगे ही रहते थे । यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषिता सूचक एवं श्लाघनीय माना गया। जलालुद्दीन रूमी, अल मन्सूर एवं सरमद जैसे सूफी सन्तों ने दिगम्बरत्व की सराहना की है। सरमद तो सदा नंगे हो रहते थे। उनका कहना था
तने उरियानी (दिगम्बरत्व में) से बेहतर नहीं कोई लिबास ।
यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है, न सीधा ॥ तथा 'पोशानीद लबास हरकारा एबदीद, बेऐबारा लबास अयानीदाद' अर्थात् "पोशाक तो मनुष्य के ऐबों को छिपाने के लिए है। जो बे-ऐब (निष्पाप) होते हैं उनका परिधान तो नग्नत्व ही होता है।" अंग्रेज महाकवि मिल्टन ने भी अपने प्रसिद्ध काव्य 'पैराडाइज लास्ट' में कहा है कि आदम और हव्वा जब तक सरल एवं सहज निष्पाप थे, स्वगिक नन्दन-कानन में सुखपूर्वक विचरते थे। किन्तु, जैसे ही उनके उनके मन विकारी हुए, उन्हें उस दिव्य लोक से निष्कासित कर दिया गया। विकारों को छिपाने के लिए ही उनमें लज्जा का उदय हुआ और उन्हें परिधान (आवरण या वस्त्रों) की आवश्यकता प्रतीत हुई।
वास्तव में दिगम्बरत्व तो स्वाभाविक निर्दोषिता का सूचक है। महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, "स्वयं मुझे नग्नावस्था प्रिय है । यदि निर्जन वन में रहता होऊं तो मैं नग्नावस्था में ही रहूं।" और महामना काका कालेलकर के शब्दों में तो- "पुष्प नग्न रहते हैं। प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोयी है ऐसे बालक भी नग्न घूमते हैं, उनको इसकी शरम नहीं आती है और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी लज्जा-जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता । लज्जा की बात जाने दें, इसमें किसी प्रकार का अश्लील, बीभत्स, जुगुप्सित, विश्री, अरोचक हमें लगा है, ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं । कारण यही है कि नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ स्वभावसिद्ध है। मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्ते की ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभाव-सुन्दर नग्नता उसे सहन नहीं होती। दोष नग्नता का नहीं, पर अपने कृत्रिम जीवन का है।"
कुछ लोग अपने मन के पाप-विकारों, चारित्रिक शिथिलता अथवा अशक्तता या असमर्थता पर परदा डालने के लिए सर्वोच्च कोटि के आत्मसाधकों के भी दिगम्बरत्व का विरोध करते हैं । कोई-कोई सभ्यता, फैशन, लोकाचार, श्लीलता-अश्लीलता आदि की आड़ लेते हैं, यहां तक कि साधु के भी दिगम्बर रूप को अदर्शनीय अथवा अमंगलकारी कहते हैं। किन्तु, जैसा कि सोमदेवाचार्य का कथन है, नग्नत्व तो लोक में एक सहज स्वाभाविक स्थिति है, वस्त्रावरण ही विकार है। जो स्वयं पापिष्ठ हैं, उनके लिए एक वस्तु पाप का हेतु बन जाती है, और जो स्वयं निष्पाप हैं उनके ऊपर उसी वस्तु का उसके विपरीत प्रभाव होता है । यदि समस्त प्राणियों के कल्याण-साधन में रत एवं ज्ञान-ध्यान-तपःपूत मुनिजन भी अमगंल होंगे, तो फिर लोक में ऐसा और क्या है जो अमगंल नहीं होगा--
सुखानुभवने नग्नो नग्नो जन्मसमागमे । बालो नग्नः शिवो नग्नो नग्नश्छिन्नशिखो यतिः ॥ नग्नत्वं सहजं लोके विकारो वस्त्रवेष्टनम् । नग्ना चेयं कथं वन्द्या सौरमेयी दिने दिने । पापिष्ठं पापहेतुर्वा पश्चानिष्टविचेष्टिनम् । अमंगलकरं वस्तु प्राथितार्थविघाति च॥ ज्ञानध्यानतपःपूताः सर्वसत्त्वहिते रताः। किमन्यन्मंगलं लोके मुनयो यद्यमंगलम् ॥'
सर्वमप्सु संन्यस्य दिगम्बरो भूत्वा । तुरीयातीतोपनिषद् देशकालविमुक्तोऽस्मि दिगम्बरसुखोस्म्यहम् । मैत्रेयी उपनिषद् ३/१६ देहमानावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः। संन्यासोपनिषद्, १/१३ । तदनन्तरं कटिसूत्र कोपीनं दण्डं वस्त्र कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याय जातरूपधरश्चरेन्न कंथालेशो नाध्येतव्य:, ''आशानिवृत्तो भूत्वा माशाम्बरधरो भूत्वा । नारदपरिव्राजकोपनिषद्, ५/१-३६ इत्यादि १. यशस्तिलकचम्पू।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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