________________
जैन साधना में ध्यान : स्वरूप और दर्शन
देवेन्द्र मुनि शास्त्री
साधना-पद्धति में ध्यान का अत्यधिक महत्त्व रहा है। कोई भी आध्यात्मिक धारा उसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुंच सकती है। यही कारण है, भारत की सभी परंपराओं ने ध्यान को महत्त्व दिया है। उपनिषद्-साहित्य में ध्यान का महत्त्व प्रतिपादित है। आचार्य पतंजलि ने योगदर्शन में उसके महत्त्व को स्वीकृत किया है। तथागत बुद्ध ने भी ध्यान को बहुत महत्त्व दिया था। भगवान महावीर ने ध्यान का गहराई से विश्लेषण किया है।
ध्यानशतक' में मन की दो अवस्थाएं बताई हैं-(१) चल अवस्था, (२) स्थिर अवस्था। चल अवस्था चित्त है और स्थिर अवस्था ध्यान है । चित्त और ध्यान--ये मन के ही दो रूप हैं । जब मन एकाग्र, निरुद्ध और गुप्त होता है तब वह ध्यान होता है। 'ध्ये चिन्तायाम्' धातु से ध्यान शब्द निष्पन्न हुआ है । शब्दोत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन है । पर प्रवृत्ति-लब्ध अर्थ उससे जरा पृथक है । ध्यान का अर्थ है चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-"एकाग्र चिंता तथा शरीर, वाणी और मन का निरोध ध्यान है।" इससे स्पष्ट है कि जैन परंपरा में ध्यान का संबंध केवल मन से ही नहीं है अपितु शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति की निष्प्रकम्प स्थिति ही ध्यान है । आचार्य पतंजलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से माना है। उनका अभिमत है जिसमें धारणा की गई हो उस देश में ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता, जो अन्य ज्ञान से अपरावृष्ट हो, वह ध्यान है। सदृश प्रवाह से तात्पर्य है जिस ध्येय विषयक प्रथम वृत्ति हो उसी विषय की द्वितीय और तृतीय हो । ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो। पतंजलि ने एकाग्रता और निरोध ये दोनों चित्त के ही माने हैं। गरुड पुराण में ब्रह्म और आत्मा की चिन्ता को ध्यान कहा है।
विशुद्धिमग्ग के अनुसार ध्यान मानसिक है। पर जैनाचार्यों की यह विशिष्टता रही है कि उन्होंने ध्यान को मानसिक ही नहीं माना, किन्तु वाचिक और कायिक भी माना है । पतंजलि ने जिसे संप्रज्ञात समाधि कहा है, वह जैन परिभाषा में शुक्ल ध्यान का पूर्व चरण है। पतंजलि ने जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहा है, उसे जैन परम्परा में शुक्ल ध्यान का उत्तर चरण कहा है ।१० जो केवलज्ञानी है उसके केवल निरोधात्मक ध्यान होता है, पर जो केवलज्ञानी नहीं है उसके एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक ये दोनों प्रकार के ध्यान होते हैं। आचार्य भद्रबाहु के सामने एक प्रश्न समुत्पन्न हुआ कि यदि ध्यान का अर्थ मानसिक एकाग्रता ही है तो उसकी संगति जैन परंपरा, जो मानसिक, वाचिक और कायिक एकाग्रता को ही ध्यान मानती है, उसके साथ किस प्रकार हो सकती है?" आचार्य भद्रबाहु ने प्रस्तुत प्रश्न का
१. छान्दोग्योपनिषद्, ७-६, १/२ २. ज घिरमज्भवसाणं तं झाणं, जं चलं तयं चित्त । ध्यानशतक, २ ३. आवश्यक नियुक्ति, गाथा, १४/६३ ४. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । तत्त्वार्थसूत्र, ६/२७ ५. पातंजल योगदर्शन, ३/२ ६. वही ७. ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यानं स्यात् । गरुडपुराण, अ० ४८ ८. विसुद्धिमग्ग, प०१४१-५१ ६. तत्र पृथक्त्ववितर्क-सविचारकत्ववितर्काविचारास्यशुक्लध्यानभेदद्वये, संप्रज्ञातः समाधिवत्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात् । पातंजल योगसूत्र, यशोविजय, १/१८ १०. वही, ११. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४६७
जैन धर्म एवं आचार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org