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योजन प्रमाण है । पृथ्वी-तल पर ही भद्रशाल वन है जो कि पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन प्रमाण है। इस वन से पांच सौ योजन ऊपर जाकर नंदनवन है जो कि अंदर में पांच सौ योजन तक कटनी रूप है। इस वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर सोमनस वन है जो पांच सौ योजन की कटनी रूप है। इससे आगे छत्तीस हजार योजन पर पांडुक वन है जो कि चार सौ चौरानवे योजन प्रमाण कटनी रूप है । इस पर्वत की चलिका प्रारंभ में बारह योजन है और घटते हुए अग्रभाग में चार योजन मान रह गई है। इन भद्रशाल आदि वनों में आम्र, अशोक, चंपक आदि नाना प्रकार के वृक्ष सतत फलों और फूलों से शोभायमान रहते हैं। चारणऋद्धिधारी मुनि, देवगण और विद्याधर हमेशा यहां विचरण करते रहते हैं।
भद्रशाल, नन्दन, सोमनस और पांडुक इन चारों वनों की चारों दिशाओं में एक-एक चैत्यालय होने से मेरु के सोलह चैत्यालय हो जाते हैं। ऊपर के पांडुकवन में चारों ही विदिशाओं में चार शिलाएँ हैं जिनके पांडुक, पांडुकंबला, रक्ता और रक्तकंबला ऐसे सुन्दर नाम हैं।
पांडक शिला पर भरत क्षेत्र के जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक-महोत्सव मनाया जाता है। पांडुककंबला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्तशिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का और रक्तकंबला शिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थकरों का जन्माभिषेक होता है।
सुमेरु पर्वत का माहात्म्य
जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कृतयुग में २४ अवतार 'तीर्थंकर' माने गये हैं। हम और आप जैसे क्षुद्र प्राणियों में से कोई भी प्राणी सोलह कारण भावनाओं के बल से इस अवतार के योग्य तीर्थकर प्रकृति नामक एक कर्म प्रकृति का बन्ध करके तीर्थंकर महापुरुष के रूप में अवतार ले सकता है और किसी भी कृतयुग के चौबीसी में अपना नाम लिखा सकता है । यह महापुरुष तीर्थकर रूप में अवतार लेकर अपना पूर्णज्ञान प्रकट करके इसी भव से परमपिता परमेश्वर के पद को प्राप्त कर लेता है, पुनः नित्य निरंजन सिद्ध परमात्मा होकर सदा-सदा के लिए शाश्वत परमानन्द सुख का अनुभव करता रहता है।
ऐसे-ऐसे असंख्यों अवतार पुरुषों का जब-जब जन्म होता है तब-तब इन्द्रों के आसन कम्पित हो उठते हैं वे भक्ति में विभोर हो अपने ऐरावत हाथी पर चढ़कर इस मर्त्य लोक में आ जाते हैं और उस नवजात शिशु को प्रसूतिगृह से लाकर इसी सुमेरु पर्वत पर ले जाकर असंख्य देवों के साथ महावैभवपूर्वक १००८ कलशों से जन्माभिषेक करके जन्म-कल्याणक उत्सव मनाते हैं । इस युग में भगवान् वृषभदेव से लेकर महावीर-पर्यन्त चौबीस अवतार हुए हैं। इन सबका भी जन्म-महोत्सव इसी सुमेरु पर्वत पर मनाया गया है। यही कारण है कि यह पर्वत अगणित तीर्थकरों के जन्माभिषेक से सर्वोत्कृष्ट तीर्थ माना जाता है। यह देव, इन्द्र मनुष्य, विद्याधर और महामुनियों से नित्य ही वंद्य है, अतः इसका माहात्म्य अचिन्त्य है।
यह पर्वत यहां से (वर्तमान उपलब्ध विश्व से) लगभग २०,००,००,०००(बीस करोड़) मील की दूरी पर विदेह क्षेत्र में विद्यमान है। यह पर्वत पूरे ब्रह्माण्ड में अर्थात् तीनों लोकों में सबसे ऊंचा और महान् है। उसी का प्रतीक एक सुमेरु पर्वत ८१ फुट ऊंचा हस्तिनापुर में निर्मित हुआ है।
चार गोपुर-द्वार
इस जम्बूद्वीप के चारों तरफ वेदी का 'परकोटा' है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर, इन चारों दिशाओं में एक-एक महाद्वार है। इनके नाम हैं-विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित।
जम्बूद्वीप के जिन चैत्यालय
इस जम्बूद्वीप में अठहत्तर अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं । सुमेरु के चार, वन सम्बन्धी १६+छह, कुलाचल के ६+चार, गजदंत के ४+सोलह, वक्षार के १६ +चौंतीस, विजया के ३४+ जम्बूशाल्मलिवृक्ष के २=७८, ये जम्बूद्वीप के अठहत्तर अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। इस जम्बूद्वीप में हम कहां है ?
यह भरत क्षेत्र, जम्बूद्वीप के १६०वें भागअर्थात् ५२६ ६/१६ योजन प्रमाण है । इसके छह खंडों में जो आर्यखंड हैं उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है :
दक्षिण का भरत क्षेत्र २३८ ६/१० योजन का है। पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा और सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं । यह आर्यखण्ड उत्तर-दक्षिण में २३८ योजन चौड़ा है । पूर्व-पश्चिम में १०००+५००
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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