________________
१ लीख
८ रथरेणु का उत्तम भोगभूमियों के बाल का
१ अग्रभाग उत्तम भोगभूमियों के बाल के
मध्यम भोगभूमियों के बाल ८ अग्रभागों का
का १ अग्रभाग मध्यम भोगभूमि के बाल के
जघन्य भोगभूमियों के बाल ८ अग्रभागों का
का १ अग्रभाग जघन्य भोगभूमियों के बाल के
कर्मभूमियों के बाल का ८ अग्रभागों का
१अग्रभाग कर्मभूमियों के बाल के ८ अग्रभागों की
८ लीख का ८ जू का
१ जव ८जव का
१ अंगुल इसे ही उत्सेधांगुल कहते हैं, इससे ५०० गुणा प्रमाणांगुल होता है। ६ उत्सेधांगुल
१पाद २ पाद का
१ बालिश्त २ बालिश्त का
१हाथ २ हाथ का
१ रिक्कू २रिक्क का
१ धनुष २००० धनुष का
१ कोस ४ कोस का
१ लघुयोजन ५०० योजन का
१ महायोजन एक महायोजन में २००० कोस होते हैं। नोट-२००० धनुष का १ कोस है। अतः १ धनुष में ४ हाथ होने से ८००० हाथ का १ कोस हुआ एवं १ कोस में २ मील मानने से ४००० हाथ का एक मील होता है।
अंगुल के तीन भेद हैं-उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। बालाग्र, लिक्षा, जूं और जौ से निर्मित जो अंगुल होता है वह 'उत्सेधांगुल' है।
पांच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण एक 'प्रमाणांगुल' होता है, जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो मनुष्य हुआ करते हैं उसउस काल में उन्हीं-उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम 'आत्मांगुल' है।
उपर्युक्त उत्सेधांगुल से ही उत्सेध कोस एवं चार उत्सेध कोस से एक योजन बनता है। यह लघुयोजन है।
उत्सेधांगुल से—देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकीयों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का प्रमाण होता है।
प्रमाणांगुल और प्रमाण-योजन से-द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड, सरोवर, वगती और भरतक्षेत्र आदि इन सबका प्रमाण जाना जाता है।
आत्मांगूल से-झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास नगर और उद्यान आदि का प्रमाण जाना जाता है ।
एक महायोजन में २००० कोस होते हैं। एक कोस में २ मील मानने से १ महायोजन में ४००० मील हो जाते हैं। अतः ४००० मील के हाथ बनाने के लिए १ मील सम्बन्धी ४००० हाथ से गुणा करने पर ४०००-४०००=१६०००००० अर्थात् एक महायोजन में १ करोड ६० लाख हाथ हुए।
__ वर्तमान में रेखिक माप में १७६० गज का एक मील मानते हैं। यदि एक गज में २ हाथ मानें तो १७६०४२=३५२० हाथ का एक मील हुआ। पुनः उपर्युक्त एक महायोजन के हाथ १६०००००० में ३५२० हाथ का भाग देने से १६००००००-३५२०४५४५.२ मील हुए।
परन्तु इस पुस्तक में स्थूल रूप से व्यवहार में १ कोस में २ मील की प्रसिद्धि के अनुसार सुविधा के लिए सर्वत्र महायोजन के
जैन धर्म एवं आचार
१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org