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आधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्य : सीमा और सम्भावना
-डॉ० इन्दु राय
महाकाव्य किसी भी वाङमय की सर्वाधिक समुन्नत और समृद्ध विधा है। आकार-प्रकार की महार्घता, चितन की गम्भीरता और रचनात्मक गरिमा में यह विधा विशिष्ट है। महाकाव्य विश्वजनीन मानवीय आदर्शों, संवेदनाओं तथा मानवीय चेतना के विकास को रूपायित करने वाला महत् काव्य है । अपने महत् उद्देश्य के कारण ही वह कवि-यश का मलाधार होता है। महाकाव्य के सजन के मूल में लक्ष्य की महत्ता तो रहती ही है उसके व्यापक रचना-फलक में युगजीवन के समस्त सन्दर्भ स्वत: अन्तर्भूत हो जाते हैं। आधनिक युग में हिन्दी महाकाव्यों का उदय जिस पृष्ठभूमि में हुआ है उसे राजनैतिक तथा धार्मिक नवजागरण का प्रभाव कहा जा सकता और भारत में राजनीति का स्वरूप भी धर्म से सम्बद्ध रहा है, इसीलिए राजनीति को भी राजधर्म कहा गया है। धार्मिक चेतना का ही व्यापक रूप भारतीय नवजागरण के मूल में सक्रिय रहा है और हिन्दी के अधिकांश महाकाव्यों की रचना इसी धार्मिक चेतना से अनप्राणित है। इस रत्नराशि में जैन महाकाव्यों का स्थान पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि जैन साहित्य की पृष्ठभूमि एक विशिष्ट धर्म पर जति किन्त उसका काव्यतात्विक मल्य उपेक्षणीय नहीं है। दर्भाग्य से अनधित्सओं व आलोचकों का ध्यान जैन साहित्य की ओर बहुत कम गया है। उनकी धारणा यही रही है कि वह साम्प्रदायिक साहित्य है, अतएव उसके सौन्दर्योद्घाटन के प्रयास भी विरल रूप से हैं। जैनेतर हिन्दी महाकाव्यों पर तो महत्त्वपूर्ण शोध कार्य हुए हैं, किन्तु आधुनिक हिन्दी जैन प्रबन्ध काव्यों, उपन्यासों, कहानियों आदि का शोधपरक अध्ययन अपेक्षित है। • महाकाव्य विधा को परिभाषित करना कठिन है। परिभाषाए या तो अतिव्याप्त होती हैं अथवा अव्याप्त । फिर प्रतिभा कान कवि परिभाषाओं या पूर्वनिर्दिष्ट लक्षणों की सीमा स्वीकार नहीं करता। महाकाव्य में युगीन चेतना व्याप्त रहती है अत: उसकी रचना-प्रक्रिया और स्वरूप में भी युगानुरूप परिवर्तन होता रहता है। तदपि हम कह सकते हैं कि महाकाव्य प्रगतिशील, सर्गबद्ध, प्रकथनात्मक रचना होती है जिसका साध्य अथवा महत् उद्देश्य युगजीवन की समस्याओं का समाधान प्रस्तत करनाकामामाजिक, धार्मिक या मनोवैज्ञानिक आदि विविध क्षेत्रीय अपेक्षाओं को पूर्ण करना होता है । वृहदात्मकता एवं अलंकृतिपूर्ण रचना विन्यास ही महाकाव्यत्व का द्योतक नहीं वरन् पर्याप्त भावगाम्भीर्य, सुगठित कथ्य, सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना का सर्वांगीण समधर प विण्यात नायक (जो किसी भी जाति, वर्ण या लिंग का हो सकता है) का आदर्शोन्मुख जीवन-चित्रण लघु आकार के काव्य को
भी महाकाव्य पद का अधिकारी बना देता है। अतः महाकाव्य में वह प्राणवत्ता, प्रभावान्विति और रसोद्रक-क्षमता होनी चाहिए जो उसे सर्वआस्वादनीय, सर्वजनीन और सर्वयुगीन बना सके।
महाकाव्य-लेखन गुरुतर कार्य है । महती काव्य प्रतिभा के अतिरिक्त उसके सृजन को वर्षों की अपेक्षा होती है। आज के वरित यग में कवि को अपने प्रयास का फलीभूत रूप देखने के लिए वर्षों की प्रतीक्षा प्रीतिकर नहीं लगती। यही कारण है कि विगत
वों से प्रदीर्घ कविताएं लिखी जाने लगी हैं। इन प्रलम्बित कविताओं द्वारा कवि चतुर्दिक परिवेश को मूर्तिमंत कर सकने के साथ
तीन समस्याओं के चित्रण और समाधान प्रस्तुत कर देता है। अत: अभीष्ट की अभिव्यक्ति हेतु महाकाव्य-रचना की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। इस 'त्वरा' प्रवृत्ति के अतिरिक्त जैन महाकाव्यकारों की एक अन्यतम कठिन सीमा है-वर्ण्य में रागात्मक घातप्रतिघात व्यंजित कर सकने की दुर्वहता । किसी भी तीर्थकर (विशेषकर बाल यति) के जीवनवृत पर महाकाव्य-प्रणयन अत्यंत कठिन कार्य है, क्योंकि जहाँ मात्र शान्त रस ही है और किसी अन्य जागतिक स्थिति की कोई सम्भावना नहीं, वहाँ काव्य के लालित्य व उसकी सुषमा का सम्यक् निर्वाह कैसे सम्भव हो सकता है ? इसके अतिरिक्त तीर्थंकरों की जीवनी जिस रूप में उपलब्ध है उसमें ऐतिहासिकता एवं मानवीय संवेदनाओं तथा रागात्मक वृत्तियां का संघर्ष गौण है । वस्तुतः जैनागमों में शलाका पुरुषों की साधना और मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न की कथा ही मुख्यरूप से वणित है।
सफल, उत्कृष्ट महाकाव्य में अपेक्षित शृगार, वीर आदि रसों की निष्पत्ति के अनुकूल प्रसंग सभी तीर्थंकरों के जीवन में उपलब्ध नहीं होते, अतः प्राचीन जैन महाकाव्यकारों ने जब कुमारावस्था में दीक्षा धारण कर लेने वाले तीर्थंकरों की जीवन-गाथा रची
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
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