________________
अंग (११)-पूर्ववत्। उपांग (१२)-पूर्ववत् । छेदसूत्र (४)-(१) आचारदशा अथवा दशा, (२) कल्प अथवा बृहत्कल्प, (३) व्यवहार तथा (४) निशीथ । चूलिकासूत्र (२)-पूर्ववत्'। मूलसूत्र (३)-(१) उत्तराध्याय, (२) दशवकालिक तथा (३) आवश्यक। उपर्युक्त आगमों में कभी-कभी नामभेद भी देखा जाता है।
कुन्दकुन्दाचार्य-विरचित दार्शनिक साहित्य--कुन्दकुन्दाचार्य का दिगम्बर-साहित्य में पद्मनन्दी, गृध्रपिच्छ, वक्रग्रीव और एलाचार्य जैसे विविध नामों से उल्लेख मिलता है। इन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य माना जाता है। इनके सभी उपलब्ध ग्रन्थ पद्यमय तथा शौरसेनी प्राकृत में हैं । प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय संग्रहसूत्र अथवा पञ्चास्तिकायसार तथा समयसार के समूह को प्राभूतत्रय के रूप में मान्यता प्राप्त है। इनकी शेष रचनाएं नियमसार तथा अष्टप्राभूत (अट्ठपाहुड): दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, सूत्रप्रामृत, बोधप्रामृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत, लिंगप्राभृत एवं शीलप्राभृत हैं । पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार जैन धर्म के तत्त्वज्ञान को समझने में कुञ्जी हैं। शेष भी अध्यात्म विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।'
समस्त आगम-साहित्य में प्रमाण, प्रमेय और वादविद्या का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। प्रमेय के विवेचन में विभज्यवाद; अनेकान्तवाद; स्याद्वाद और सप्तभंगी'; नय, आदेश या दृष्टियां; नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि; प्रमाण के विवेचन में ज्ञान-चर्चा और उसका विषय, ज्ञान का प्रमाण से स्वातन्त्र्य, प्रमाण और प्रमाण के भेद आदि; वाद-विद्या के विवेचन में वाद, कथा, विवाद, वाददोष, विशेष दोष, प्रश्न, छल, जाति और उदाहरण-ज्ञात-दृष्टान्त आदि विषय वर्णित हैं। सृष्ट्युत्पत्ति-सिद्धान्त तथा क्रियावाद की स्थापना हुई है। दिगम्बर आगमों का विषय मुख्य रूप से जीव और कर्म तथा कर्म के कारण होने वाली जीव की नाना अवस्थाएं हैं।"
आगम युग में मुख्यतः स्वमत-प्रदर्शन का भाव होने से खण्डनात्मक ग्रन्थ-निर्माण की प्रवृत्ति का अभाव-सा ही है, यद्यपि प्रसंगवश सूत्रकृतांग जैसे ग्रन्थों में परमत की आलोचना भी है। इस युग की प्रमुख विशेषता जड़-चेतन के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन तथा अहिंसा, संयम, तप आदि आचारों का निरूपण करना है। इन आचारों से जैन परम्परा के परवर्ती काल में योग-साहित्य पुष्पित तथा पल्लवित हुआ।"
आगमिक आम्नाय पर लिखी गई चूणि तथा नियुक्ति नाम की टीकाएं दार्शनिक चर्चा से परिपूर्ण हैं। इनमें तथा कुन्दकुन्द विरचित पाहुडों में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का पर्याप्त मात्रा में ऊहापोह किया गया है।
(२) अनेकान्तस्थापन युग
यह युग लगभग दो शताब्दियों का है, जो विक्रमीय छठी शताब्दी से प्रारम्भ होकर आठवीं शताब्दी तक पूर्ण होता है। इस युग में संस्कृत भाषा के अभ्यास की तथा उसमें ग्रन्थ-प्रणयन की प्रतिष्ठा स्थिर हुई। सामान्यतः प्रथम-द्वितीय शताब्दी में उमास्वाति-सदृश आचार्यों द्वारा जैन वाङ्मय में संस्कृत का प्रवेश होते ही इस युग का परिवर्तनकारी लक्षण प्रारम्भ होता है, किन्तु आगमों का सृजन पञ्चम-षष्ठ शताब्दी तक प्रचुर मात्रा में होता रहा, अतः इस युग का प्रारम्भ षष्ठ शताब्दी से माना जाता है। इस युग में परमत-खण्डन की प्रधान दृष्टि
१. द्रष्टव्य-पृ०२ २. द्रष्टम्य-पृ०३ ३. द्रष्टव्य-पृ०३ ४. द्रष्टव्य-Kapadia : A History of the Canonical Literature of the Jainas, प्रकरण २ ५. द्रष्टव्य-डॉ. रमेशचन्द जैन : प्रवचनसार में संसार और मोक्ष का स्वरूप, पृ० ६६-१०० ६, द्रष्ट व्य-डॉ. लालबहादुर शास्त्री : आचार्य कुन्दकुन्द की सन्तुलित दृष्टि, पृ०६३-६५ ७. द्रष्टव्य-डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री : आचार्य कुन्दकुन्द और उनका दार्शनिक अवदान, पृ० १४४-१५० ८. द्रष्टव्य-युवाचार्य महाप्रज्ञ जी (मुनि नथमल): ईतवाद और अनेकान्तवाद, पृ०१७-२० १. द्रष्टव्य-श्री रमेश नुनि शास्त्री : स्याद्वाद सिद्धान्त-मनन और मीमांसा, पृ० २१-२५ १०. द्रष्टव्य-Prof. M.S. Ranadive : The Jaina Idea of Universe, पृ० ६५-६८ ११. द्रष्टव्य-डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी : जैन कर्मसिद्धान्त-तुलनात्मक विवेचन, १०८७-८८ १२. द्रष्टव्य-श्री जिनेन्द्र वर्णी : तत्त्वज्ञता, पृ०४८-५१ १३. द्रष्टव्य-मुनि श्री राकेशकुमार जी : आगम-साहित्य में योग के बीज, पृ० १४०-१४३ १४. द्रष्टव्य-Dr. Shiv Kumar : Kundakunda on Samkhya Purusa, पृ० १६१-१६४
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org