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या ज्ञान व्यजक वाक्य को सत्य कहना चाहिए जो एक समष्टि (सिस्टम) का अंग बन सकता है व्यक्तिगत रूप में किसी वाक्य को सत्य कहना अनुचित है ।' ब्रेडले की मान्यता के अनुसार प्रत्येक वाक्य ( जजमेन्ट) अंशतः सत्य होता है और अंशतः मिथ्या । पूर्ण सत्य किसी एक वाक्य या अनुभव में नहीं पाया जा सकता। पूर्ण सत्य की वाहक केवल वह 'वाक्य समष्टि' है जो अपनी शब्दात्मक परिधि में अशेष विश्व को अपना विषय बना लेती है ।" जैन अनेकान्तवाद की आधुनिक सन्दर्भ में पाश्चात्य संगतिवाद से इस अर्थ में साम्यता प्रतिपादित की जा सकती है कि वह भी यही स्वीकार करता है कि कोई भी कथन निरपेक्ष या पूर्ण रूप में सत्य नहीं होता परन्तु जैन दार्शनिकों ने इस वाद के समर्थन में जो युक्तियां दी हैं उसके कई पक्षों का आज नए सिरे से पुनर्मूल्यांकन किया जाने लगा है। संगतिवाद की ज्ञान- समष्टि के विविध अंग परस्पर एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित रहते हुए भौतिक विज्ञान की मान्यताओं पर आधारित हैं। इस दृष्टि से डा० देवराज ने अनेकान्तवाद के तत्त्वदर्शन पर आपत्ति उठाई है कि जब जैन दर्शन में जीव, पुद्गल काल आदि पदार्थों में कोई अन्तरंग (आन्तरिक) सम्बन्ध नहीं है फिर उनके बोध सत्यों में क्यों परस्पर सापेक्षता हो ? इसके विपरीत संगतिवादी वास्तविकता का तत्त्व पदार्थ को विश्व की असंख्य व्यक्तियों (रूपों) की समष्टि मानते हैं अतः उनके लिए समस्त सत्य भी स्वभावतः सम्बद्ध हैं।"" इसी प्रकार पाश्चात्य संगतिवाद के परिप्रेक्ष्य में अनेकान्तवाद ने जो जिज्ञासा और सन्देह के सात ही प्रकार निश्चित किए हैं उनमें वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को समाविष्ट करने की शास्त्रीय विनिगमकता क्या होगी ? वस्तुत: आधुनिक विचारकों को “स्याद्वाद की यह मान्यता कम समझ में आती है कि 'घट' को जानने के लिए यह जानना क्यों जरूरी है कि घट क्या-क्या नहीं है ? सुई से छेदे जाने का दुःख क्या होता है, यह समझने के लिए यह जानना क्यों जरूरी होना चाहिए कि दुःख क्या-क्या नहीं है ? "४
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अनेकान्तवाद के सन्दर्भ में भी कभी-कभी यह स्वीकार किया जाता है कि सर्वज्ञ हुए बिना एक वस्तु का भी ज्ञान संभव नहीं । जो एक पदार्थ को सब दृष्टियों से जानता है वह सब पदार्थों को सम्पूर्णतया जानता है । जो सब को जानता है वही एक को जान सकता हैएको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ *
अनेकान्तवाद की उपर्युक्त तर्क-योजना आधुनिक विचारकों के अनुसार अन्तदृष्टिजन्य ज्ञान अथवा आत्मज्ञान ( इन्ट्यूटिव नॉलिज) के रूप में तो स्वीकार की जा सकती है किन्तु बुद्धिवादी सामान्य तर्क प्रणाली की दृष्टि से इसका महत्त्व स्वीकार्य नहीं
आधुनिक योरोपीय दर्शन में 'संगतिवाद' के विरुद्ध 'व्यवहारवाद' अथवा 'उपयोगितावाद' (प्रंगमैटिज्म) की भी अवतारणा हुई है, ठीक वैसे ही जैसे 'अनेकान्तवाद' के विरुद्ध 'एकान्तवाद' का नाम लिया जाता है। इस वाद के अनुसार तथ्य कथन अथवा सत्य का मापदण्ड है— उसके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा अथवा प्रवृत्ति का औचित्य । इस सम्बन्ध में व्यवहार बाद के प्रबल समर्थक विलियम जेम्स का कहना है कि हमारे विश्वास वास्तव में कर्म करने का नियमन करते हैं अतएव सत्य हमारे कर्तव्यानुष्ठान को प्रभावित करते हैं। जिस सत्य कथन से हमारे व्यवहार पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ने वाला हो तो ऐसे कथन के सत्य अथवा असत्य होने की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है। इस व्यवहारवादी दर्शन के सन्दर्भ में जैनों के अनेकान्तवाद के अनुसार यह उपयोगितावादी आग्रह 'एकान्तवाद' के रूप में प्रतिपादित किया जाता है। वस्तुस्थिति यह है कि आधुनिक पाश्चात्य दर्शनों के सन्दर्भ में 'एकान्तवाद के आग्रहवादी प्रवृत्ति की भी नए सिरे से पुनर्मुल्यांकन की आवश्यकता आ पड़ी है। इसके लिए यह देखना आवश्यक हो जाता है कि बुद्धिवादी ज्ञान की सीमाएं और प्रवृत्तियां क्या है ?
पाश्चात्य दार्शनिक वर्गसां यह मानता है कि बुद्धि ठोस पिण्डों में अर्थात् द्रव्यों में ही स्वभावतः रमती है, गति और परिवर्तन
१. देवराज, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन,
२. वही, पृ० ११
पृ० १०
३. वही, पृ० ९७
४. वही, पृ०६८
५. तुलनीय "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ||
आचारांग श्रुत स्कन्ध १, अध्ययन ३, उद्देश ४ सुत्र १२२
. "Where Jainism refers to complete absolute knowledge, it must be taken in the sense of intuitive knowledge of a 'Jina' or realised soul. But intuitive knowledge is not logical, though it may be supra logical. We are concerned with the logic of man and not with the logic of super man'--M. N. Rastogi, ‘The Theories of Implication in Indian and Western Philosophy', Delhi, 1982, पृ० ८३
७. “Our beliefs are really rules for action. All realities influence our practice". W. James, 'Pragmatism', 1907, १०४६ ४
जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ
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