________________
जैन दर्शन में वीर भाव की अवधारणा
डॉ० नरेन्द्र भानावत
जैन दर्शन अहिंसा-प्रधान दर्शन है। अहिंसा को 'न मारने' तक सीमित करके लोगों ने उसे निष्क्रियता और कायरता समझने की भ्रामक कल्पनाएँ की है। तथाकथित आलोचकों ने अहिंसा धर्म को पराधीनता के लिए जिम्मेदार भी ठहराया। महात्मा गांधी ने वर्तमान युग में अहिंसा की तेजस्विता को प्रकट कर यह सिद्ध कर दिया है कि अहिंसा वीरों का धर्म है, कायरों का नहीं। इस संदर्भ में सोचने पर सचमुच लगता है कि अहिंसा धर्म के मूल में वीरता का भाव है। वीरभाव का स्वरूप
काव्यशास्त्रियों ने नबरसों की विवेचना करते हुए उनमें वीररस को एक प्रमुख रस माना है । वीररस का स्थायीभाव उत्तम प्राकृतिक उत्साह कहा गया है। किसी कार्य को सम्पन्न करने हेतु हमारे मानस में एक विशेष प्रकार की सत्वर क्रिया सजग रहती है, वही उत्साह है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उत्साह में प्रयत्न और आनन्द की मिली-जुली वृत्ति को महत्व दिया है। उनके शब्दों में-- "साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है।" मनोविज्ञान की दृष्टि से वीरभाव एक स्थायी भाव (Sentiment) है, जो स्नेह, करुणा, धैर्य, गौरवानुभूति, तप, त्याग, रक्षा, आत्मविश्वास, आक्रोश, प्रभुता आदि संवेगों (Emotions) के सम्मिलित प्रभाव का प्रतिफल है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'वीर' शब्द में मूल धातु '' है जिसका अर्थ छाँटना, चयन करना, वरण करना है अर्थात् जो वरणकर्ता है, वह वीर है। इसी अर्थ में वर का अर्थ 'दूल्हा' होता है क्योंकि वह वधू का वरण करता है, वरण कर लेने पर ही वर वीर बनता है। इसमें श्रेष्ठता का भाव भी अनुस्यूत है । इस दृष्टि से वीर भाव एक आदर्श भाव है जिसमें श्रेष्ठ समझे जाने वाले मानवीय भावों को समुच्चय रहता है। वीरभाव और आत्मस्वातन्त्र्य
बीरभावना के मूल में जिस उत्साह की स्थिति है वह पुरुषार्थ प्रधान है। पुरुषार्थ की प्रधानता व्यक्ति को स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर बनाती है। वह अपने सुख-दुःख, हानि-लाभ, निन्दा-प्रशंसा, जीवन-मरण आदि में किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता । आत्मकर्तव्य का यह भाव जैन दर्शन का मूल आधार है
अप्पा, कत्ता, बिकत्ता य, दुहाण य सहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं चं, दुपट्ठिय सुपट्ठिओ॥ अर्थात् आत्मा ही सुख-दुःख करने वाली तथा उनका नाश करने वाली है। सत् प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र रूप है जबकि दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु रूप है।
इस वीर भावना का आत्मस्वातन्त्र्य से गहरा सम्बन्ध है । जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को अपना स्वामी स्वयं कहा गया है । उसकी स्वाधीनता और पराधीनता उसके स्वयं के कर्मों के अधीन है । रागद्वेष के कारण जब उसकी आत्मिक शक्तियां आवृत्त हो जाती हैं तब वह पराधीन हो जाती है। अपने सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप द्वारा जब वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्मों का नाश कर देता है तब उसकी आत्मशक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं और वह जीवन-मुक्त अर्थात अरिहंत बन जाता है। अपनी शक्तियों को प्रस्फुटित करने में किसी की कृपा, या दया कारणभूत नहीं बनती। स्वयं उसका
१. उत्तराध्ययन २०/३७
१२६
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org