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जैन हिन्दी-काव्य में व्यवहृत संख्यापरक काव्य-रूप
-डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया
वैदिक तथा बौद्ध धाराओं के समान ही जनजीवन को जैन संस्कृति और साहित्य ने प्रभावित किया है । जैन आचार्यों और मनियों ने विश्वमंगल और लोक कल्याण के निमित्त अनुभूति का जो उपदेश दिया है, जीवन और जगत् की निगढ़तम समस्याओं पर जो समाधान दिया है और आत्मलीन होकर शास्त्र-स्वाध्याय से जो वाणी विविध काव्यरूपों में प्रस्फुटित हुई है उनका समवाय हमें जैन हिन्दी कवियों की कान्यकृतियों में सहज ही उपलब्ध होता है। भाव अथवा विचार अभिव्यक्त होकर जो रूप अथवा आकार ग्रहण किया करते हैं कालान्तर में वही रूप काव्यरूप की संज्ञा प्राप्त करता है। पन्द्रहवीं शती से लेकर उन्नीसवीं पाती तक हिन्दी साहित्य में अनेक काव्यरूपों का प्रयोग हुआ है। यहां हम संख्यापरक काव्यरूपों की स्थिति पर संक्षेप में विचार करेंगे।
भारतीय काव्यशास्त्र की दृष्टि से हम काव्य रूप को दो प्रमुख भेदों में विभाजित कर सकते हैं । यथा1. निबद्ध काव्यरूप 2. मुक्तक काव्यरूप
संख्या और छन्द मुक्तक काव्यरूप के दो प्रमुख अंग हैं। विवेच्य काव्य में जिन संख्यापरक काव्यरूपों का प्रयोग हआ है. उन्हें अकारादि क्रम से इस रूप में व्यक्त किया जा सकता है-अष्टपदी, चतुर्दशी, चालीसा, चौबीसी, छत्तीसी, पचीसी, पंचासिका. पंचशती, बत्तीसी, बहत्तरी, बारहमासा, बावनी, शतक, षट्पद, सतसई और सत्तरी नामक सोलह प्रमुख काव्यरूपों का प्रयोग-प्रसंग द्रष्टव्य है। अब यहाँ इन काव्यरूपों का क्रमश: अध्ययन करेंगे।
अष्टपबी-अष्टक और अष्टपदी नामक संज्ञाओं में व्यवहृत यह काव्यरूप आठ की संख्या पर आधुत है। विवेच्य काला स्तवन की भांति मुक्तक रूप में यह काव्यरूप प्रयुक्त है। अठारहवीं शती के यशोविजय उपाध्याय', श्री विद्यासागर तथा भगवतीदा। द्वारा रचित हिन्दी काव्यकृतियों में अनेक बार अष्टपदी नामक काव्यरूप प्रयुक्त हुआ है।
सती -इस काव्यरूप में चौदह की संख्या का महत्त्व है । किसी स्वतत्र भावना को काव्यात्मक अभिव्यक्ति जब चौदह छन्दों में पूर्ण हो जाती है तब उसे चतुर्दशी कहा जाता है । सत्रहवीं शती के प्रसिद्ध आध्यात्मिक कवि बनारसीदास के द्वारा प्रणीत चतुर्दशी का उल्लेख मिलता है ।'
चालीसा-चालीसा काव्यरूप में चालीस की संख्या होती है । भक्त्यात्मक काव्यकृतिया मुख्यत: इस काव्यरूप में रची गई हैं। लोक में हनुमानचालीसा सुप्रसिद्ध भक्तिकाव्य है। अठारहवीं शती में जन हिन्दी कवि भवानीदास द्वारा रचित आध्यात्मिक चालीसा प्रसिद्ध है।
चौबीसी-इस काव्यरूप का मूलाधार चौबीस संख्या है । चौबीस छन्दों की संख्या वस्तुत: चौबीसी कहलाती है। विवेच्य काव्य में मख्यतः चौबीस तीर्थंकरों से सम्बन्धित भक्त्यात्मक काव्यरचना चौबीसी काव्यरूप में व्यवहृत हुई है। अठारहवीं शती के जिनहर्ष', भैया भगवती दास तथा बुलाकी दास की चौबीसियां प्रसिद्ध हैं।
छसीसी-छत्तीसी का मलोद्गम अपभ्रश भाषा में सन्निहित है। जैन हिन्दी काव्य में यह काव्यरूप सत्रहवीं शताष्टी में व्यवहत है। कुशल लाभ और उदयराज जती" द्वारा रचित छत्तीतियां उल्लिखित हैं । अठारहवीं पाती के जिनहर्ष२ और भवानीदास विरचित छत्तीसियां भी प्रसिद्ध हैं।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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