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इसकी रचना कवि ने विक्रमाब्द १५८४ के कार्तिक मास में की थी (द्रष्टव्य-पूर्व उद्धृत पंक्तियां) । इसी पुस्तक के तिरपन छप्पय में कवि की उपाधि 'कवि-कंकण' भी प्रयुक्त हुई है। इससे सहज ही अनुमित होता है कि इस समय तक छीहल काव्यकारिता की दृष्टि से प्रख्यात हो चुके थे एवं उन्हें 'कवि-कंकण' की उपाधि प्राप्त हुई थी।
आरम्भ के प्रथम पांच छप्पयों में 'ॐ नम: सिद्धः' का क्रम है और तदुपरान्त सभी छप्पय नागराक्षर-क्रम से रचित हैं। क्रमनिर्वाह में दो स्वर (ओ, औ) और तीन व्यंजन (क्ष, त्र, ज्ञ) छोड़ दिये गये हैं । पंचमाक्षरों के लिए 'न' एवं 'ऋ', 'ऋ', 'ल', 'ल', 'य', 'व', 'श' के लिए क्रमश: 'रि', 'री' 'लि', 'ली', 'ज', 'ओ', 'स' के प्रयोग हुए हैं। कई अन्य जैन कवियों ने भी बावनियों में नागराक्षर का यह परिवत्तित रूप पद्य-क्रम के लिए ग्रहण किया है।' 'बावनी' का प्रथम छप्पय मंगलाचरणात्मक है जिसमें ॐकार और जैन देवों की वन्दना की गयी है । अन्तिम छप्पय में 'बावनी' का रचनाकाल और कवि-वंश इत्यादि उल्लिखित हैं। शेष छप्पयों में नीति और उपदेश के विषय वणित हैं।
'बावनी' का प्रतिपाद्य विषय जैन मतानुसार व्यावहारिक नीति का प्रतिपादन करना है। इसमें सामान्यतः इन्द्रिय-निग्रह, ईश्वर-स्मरण, शील, कीत्ति, समय की परिवर्तनशीलता, उत्तम कार्यों के शीघ्र सम्पादन, पूर्व लेख, अकरणीय कार्य, कर्म रेखा, उपकार, भाव, विवेक, गर्व की व्यर्थता, स्वभाव, कर्म, संसार की स्वार्थपरायणता, स्वार्थी मित्र, वज्रमूर्ख, अवगुण-त्याग और गुण-ग्रहण, संतोष, कृपणता का विरोध, उपकारीजन की रक्षणीयता, नीचों की संगति का त्याग, धन की व्यर्थता, अवसर बीतने पर दिये गये दान की व्यर्थता', इत्यादि के सम्बन्ध में बड़े भावपूर्ण छप्पय कहे गये हैं। वणित नीति और उपदेश के विषय हैं तो प्राचीन और परम्परीण, किन्तु प्रस्तुतीकरण की मौलिकता, प्रतिपादन की विशदता एवं दृष्टान्तचयन की सूक्ष्मता इसमें सर्वत्र वर्तमान है। यही कारण है कि यह रचना उत्तम बन गयी है । डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने भी स्वीकार किया है कि "नीति और उपदेश को मुख्यतः विषय बनाते हुए भी रचनाकार कभी काव्य से दूर नहीं हुआ है, इसीलिए प्रायः उसकी कविता में नीति भी एक नये ढंग से तथा नये भावों के साथ अभिव्यक्त हुई है।" विषय के चयन और प्रतिपादन हेतु कवि संस्कृत के सुभाषितों, नीति-ग्रन्थों आदि का भी ऋणी है। इसके बावजद कवि ने अपने छप्पयों को संस्कृत के अनुवदन का अनुधावन होने से बचा लिया। इस दृष्टि से निम्नांकित छप्पय देखे जा सकते हैं । यथा :
क. पच्चीसवां छप्पय
चत मास बनराइ फलइ फुल्लइ तश्वर सह । तो क्यु दोस वसन्त पत्त होवे करीर नंहु ।। दिवस उलूक जु अन्ध तप्तौ रवि को नहिं अवगुन । चातक नीर न लहइ नश्थि दूषण बरसत धन ।। दुख सुख दईव जो निर्मयो, लिखि ललाटा सोइ लहइ । विष वाव न करि रे मूढ़ नर, फर्म दोस छोहल कहइ ।।
तुलनीय
पत्र नव यदा करीरविटपे दोषो बसन्तस्य किनोलकोप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य कि दूषणम् । धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघयकि दूषणयत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्माजिकः क्षमः ॥
-नीति शतक (भर्तृहरि)
१. विशेष के लिए द्रष्टव्य - प्रस्तुत लेखक कृत 'हिन्दी बावनी काव्य' २. बावनी, छप्पय सं० क्रमश: २, ३, ५, ६, ७, ८, ९, ११. १४ (१७, २३, ४४), १६, २१, २२ (२४, २६, ३४), २५, २७, २६, ३१, ३३; ३५, ३७
४०,४१, ४५ भौर ५१ ३. सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृष्ठ १७१
१६४
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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