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जीव बालक के रूप में जन्म लेता है । जन्म लेते ही वह अचैतन्य हो जाता है। वह धरती पर लोटता और गिरता-पड़ता रहता है। भूख लगने पर रोता है और माता का दूध पीकर शांत हो जाता है। उसके मुख से लार टपकती रहती है। उसे न मूत्र-विष्ठा का ज्ञान होता है और न भक्ष्याभक्ष्य का; वह लक्ष्य-अलक्ष्य भी भूल जाता है। इसी कारण वह जिनवर की भक्ति नहीं कर पाता और इसी प्रकार उसका बचपन समाप्त हो जाता है (गीत-२)।
बालक युवा बनता है । यौवन की मस्ती में वह चारों दिशाओं में लक्ष्यहीन घूमता रहता है। पर-धन और परतिय में ही उसका मन लगा रहता है। ऐसा करने में उसे आनन्द तो मिलता है, पर उसका चित्त सदा अस्थिर और चंचल बना रहता है। उसकी समझ में आता ही नहीं कि यह 'विष-फल' है। 'अमीफल' तो जिनवर की सेवा मात्र है जिसे उसने सर्वथा छोड़ दिया है। परब्रह्म को बिसार देने से काम, माया, मोहादि उस पर अधिकार कर लेते हैं, परिणामत: वह यौवन में भी जिनवर की पूजा नहीं कर पाता है। इस प्रकार यौवन भी व्यर्थ ही व्यतीत हो जाता है (गीत-३) ।
अन्तत: वैरी बढ़ापा आया । सुधि-बुद्धि नष्ट होने लगी तब उसे पश्चाताप हुआ । कानों की श्रवण-शक्ति क्षीण होने लगी। आंखों की ज्योति धमिल पड़ने लगी, किन्तु जीवन की लालसा में किसी प्रकार की कमी नहीं आयी-जीवन के प्रति आसक्ति और अधिक बढ़ गयी । छीहल प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि नर ! तू भ्रम में पड़ कर भटक क्यों रहा है ? यदि तू युक्तिपूर्वक जिनेन्द्र की भक्ति करेगा, तो भवसागर को लीलावत् पार कर जायेगा (गीत-४)।
गीतों के उपरिविश्लेषण से विदित होता है कि ये उत्कृष्ट भक्ति-गीत हैं । इनमें छीहल का मरमी संत सहज रूप में खुलाखिला है। इस विषय से सम्बन्धित हिन्दी में अनेक जैन एवं जनेतर कवियों ने गीत लिखे हैं । तुलसीदास की 'विनय-पत्रिका' में ऐसे अनेक गीत हैं जिनसे छीहल के इन गीतों की तुलना सहज ही की जा सकती है । ये गीत मात्र आत्म अभिव्यंजनात्मक ही नहीं, स्वसंवेदन-ज्ञान से भी युक्त हैं । यही इनकी उपलब्धि है। घ/४. पन्थी-गीत
पन्थी-गीत' में कुल छह पद्य हैं। यह एक लघु किन्तु उत्तम रूपक काव्य है जिसके द्वारा सांसारिक प्राणी को सांसारिकता के मिथ्यात्व का उपदेश किया गया है । इस रूपक का मूल स्रोत 'महाभारत' है जो जैन-ग्रन्थों में स्वीकृत हुआ है । महाभारतीय दष्टान्त जैन-ग्रन्थों में किंचित् भिन्न रूप में स्वीकृत हुआ है । छील के इस रूपक की महाभारतीय दृष्टान्त से तुलना करने पर भी वह भिन्नता स्पष्ट हुए बिना नहीं रहती है । स्पष्ट है कि छीहल ने इस रूपक को जन-स्रोत से ही ग्रहण कर काव्य का रूप दिया है।
__ 'पन्धी-गीत' के प्रथम चार पद्यों में रूपक को कथात्मक पूर्णता मिली है। पांचवें पद्य में कवि ने रूपक को स्पष्ट किया है और छठा पद्य उपदेशपरक है। रूपक एक लोकप्रिय कथा के रूप में उपस्थित किया गया है। कथा निम्नांकित है :
एक पथिक चलते-चलते सिंहों के घने अरण्य में पहुँचा । वहां पहुँच वह रास्ता भूल कर इधर-उधर भटकने लगा। तभी सामने से एक मदोन्मत्त हाथी आता हुआ दिखा । हाथी का रूप रौद्र था। वह क्रोधाभिभूत हो प्रचण्ड शुण्ड को इधर-उधर घुमा रहा था। उसे देख पथिक भयभीत हो गया; वह डर से कांपने लगा (पद्य-१) ।
हाथी से बचने के लिए पथिक भाग चला । हाथी ने उसका पीछा किया। आगे घास-फूस से ढंका एक कूप था । जीवनरक्षा की आतुरता के कारण भागते पथिक को कूप का अन्दाज नहीं हुआ और वह उसमें गिर पड़ा। गिरते हुए पथिक के हाथ में सरकण्डों का एक गुच्छा पकड़ा गया, जो कूप की दीवार में ही उग आया था। वहां और कुछ था नहीं, अत: सरकण्डे का गुच्छा मात्र ही अब पथिक का अवलम्ब था (गीत-२)।
कप में सरकण्डों के गुच्छे के सहारे झूलता हुआ पथिक कठिन दुख झेलने लगा। ऊपर हाथी खड़ा था। चारों दिशाओं में चार फणिधर कुण्डली मार कर जमे थे और नीचे कूप के तल में अजगर मुंह खोले पड़ा था। साथ ही श्वेत और श्याम वर्ण के दो चूहे सरकण्डों की जड़ें खोद रहे थे। ऐसी स्थिति में पथिक सोच रहा था कि अब इस संकट से उद्धार नहीं होगा (पद्य-३) ।
कप के पास बरगद का एक वक्ष था। उसकी डालियों में मधुमक्खियों के छत्ते थे। हाथी ने बरगद को झकझोर दिया।
१. महाभारत, स्त्री-पर्व, राजा धृतराष्ट्र को विदर का उपदेश : संसार-परण्य का निरूपण ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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