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भगवान् नेमिनाथ एवं राजमती से संबंधित हिन्दी-रचनाएँ
--श्री वेदप्रकाश गर्ग
जन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है । इस धर्म के २४ तीर्थकर भारत के विभिन्न भागों में जन्गे, साधना करके सर्वज्ञ बने और अनेक प्रदेशों में घूमकर धर्म-प्रचार किया । उन तीर्थंकरों में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव हुए, जिनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भारत भूमि के 'भोगभूमि' रूप को 'कर्मभूमि' रूप में परिणत करने के कारण वर्तमान सभ्यता और संस्कृति, विद्या और कला के प्रथम पुरस्कर्ता भगवान ऋषभदेव ही माने जाते हैं।
आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव की परम्परा में २२वें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ' (अन्य नाम अरिष्टनेमि) हुए। ये जैन परम्परा के अत्यन्त मान्य एवं लोकप्रिय तीर्थकर हुए हैं। इनका जन्म ब्रज प्रदेश के शौरीपुर' नामक नगर में हुआ था, जो आज भी जैन तीर्थ के रूप में विख्यात है और समय-समय पर जैन यात्री भगवान नेमिनाथ जी की इस जन्मभूमि की यात्रा करके अपना अहोभाग्य मानते हैं। उनके कारण ही यह प्रदेश सभी जैन धर्मावलम्बियों द्वारा सदा से पुण्य स्थल माना जाता रहा है। इनके पिता यदु-वंश के राजा समुद्रविजय थे और इनकी माता का नाम शिवादेवी था। इनकी बाल्यावस्था में ही यादवगण पश्चिमी समुद्र के किनारे सौराष्ट्र में द्वारकापुरी में चले गये थे। वासुदेव कृष्ण इनके चचेरे भाई थे।
नेमिप्रभु बड़े पराक्रमी थे। इनका विवाह राजा उग्रसेन की बेटी राजमती (राजुल)" से होना निश्चित हुआ था, किन्तु जब बारात लेकर वे राजुल को ब्याहने पहुंचे तो बहुत-से पशु-पक्षियों को एक बाड़े में चीत्कार करते देखकर अपने साथियों से पूछा कि इतने पशु-पक्षियों को यहां क्यों एकत्र किया गया है और ये क्रन्दन क्यों कर रहे हैं? तब सारथी ने कहा कि ये मांस-प्रेमी बरातियों के भोजनार्थ एकत्रित किये गये हैं और मरने के भय से चोत्कार कर रहे हैं। यह सुनकर नेमिनाथ जी का परम अहिंसक हृदय तड़प उठा। वे संसार की इस मांसाहारी वृत्ति और भोग-लिप्सा के इस नारकीय दृश्य को देखकर लोकोत्तर विरक्ति से भर गये । उन्होंने अपने पिता १. इन्होंने 'शंख' के जन्म में तीर्थकरत्व की साधना की थी। यही शंख जन्मान्तर में तीर्थंकर नेमिनाथ हुए। इनकी जन्म-तिथि किसी ने श्रावण पंचमी
मौर किसी ने कार्तिक कृष्णा द्वादशी लिखी है। भाषाढ़ शुक्ला अष्टमी इनकी निर्वाण तिथि मानी जाती है। निर्वाण स्थल 'उर्जयन्त' गिरनार (जिसे
रेवन्तगिरि भी कहते थे), चैत्य वृक्ष वेतस तथा चिह्न शंख है। २. बटेश्वर नामक ग्राम से लगभग एक मील दर यह शौरीपर जैन तीर्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों को मान्य है। दोनों के यहाँ मन्दिर बने हुए है
जिनमें से दिगम्बर मंदिर में कई प्राचीन मूर्तियां और पवशेष प्राप्त हैं। पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण भनेक प्राचीन वस्तुएँ शोरीपुर वंसावशेषों से प्राप्त हुई हैं। कंनिघम ने यहाँ से ऐसी अनेक वस्तनों का संग्रह किया था। किसी-किसी ने द्वारावती में ही इनका जन्म होना लिखा है। ५वीं शती के लगभग गणिवाचक संघदास द्वारा रचित 'वस देव हिंहि' नामक प्राचीन कला-ग्रंथ में लिखा है कि हरिवंश में शोरी मौर बीर नामक दो भाई हुए। जिनमें शौरी ने शोरीपर भोर वीर ने शौवीर नामक नगर बसाया। शौरी के पुत्र अन्धक वृष्णि के भद्राराणी से समुद्रविजय मादि १० पुत्र हुए पौर कंती व मादी दो कन्यायें हुई। वीर के पुत्र भोज वृष्णि हए। उनका पुत्र उग्रसेन हया और उग्रसेन के बन्धु, सुबन्धु एवं कंस प्रादि ६ पुत्र हुए। इनमें से समुद्रविजय ने शोरीपुर में प्रौर उग्रसेन एवं कस ने मथुरा का राज्य किया। समुद्रविजय के पुत्र अरिष्टनेमि या नेमिनाथ हए, जो भागे चलकर २२वें तीर्थकर कहलाये। समुद्रविजय के छोटे भाई वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण हुए जिन्होंने कस को मार कर मथुरा का राज्य लिया, किन्तु मगध के पराक्रमी राजा जरासंध के भय से कृष्ण और समुद्रविजय को यादवों के साथ वहाँ से प्रयाण करना पड़ा। वे पश्चिमी समुद्र तटवर्ती सौराष्ट्र प्रदेश में पहुंचे और वहां द्वारिका नगरी बसाकर यादवों सहित श्रीकृष्ण ने लम्बे समय तक राज्य किया।
समुद्रविजय के पश्चात् अरिष्टनेमि ही यादव राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी थे किन्तु युवावस्था में ही विरक्त हो जाने के कारण इन्होंने राज्याधिकार का त्याग किया था। उसके फलस्वरूप वसुदेव और फिर कृष्ण बलराम शोरीपुर के अधिपति हुए थे। ४. उग्रसेन को किसी ने मथुरा का राजा लिखा है और किसी ने उन्हें जूनागढ़ का पधिपति बतलाया है। ५. किसी-किसी ने इन्हें भोज-पुनी भी लिखा है अर्थात् उग्रसेन की बहन ।
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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