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से कहा कि "मेरे विवाह के निमित इतने पशु-पक्षी मारे जायें, ऐसा विवाह मुझे नहीं करना है। अब विवाह करूंगा तो बस मुक्ति-वधू से।" सभी लोगों ने उन्हें बहुत समझाया, पर दयालु नेमिनाथ जी ने जो निश्चय किया, वह कह दिया, उससे टस से मस नहीं हुए। उन्होंने विवाह-परिधान उतार फेंके । वे उन निरीह जीवों की हिंसा की आशंका से इतने द्रवीभूत हुए कि वे उसी समय विरक्त होकर और राजमती को अनब्याही छोड़कर बिना किसी की प्रतीक्षा किये द्वारका की ओर मुड़ चले तथा उर्जयन्त गिरि पर जा दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे। चौवन दिन तक तपस्या करने के बाद उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हो गई। उनकी धर्म-सभाओं का आयोजन होने लगा। बहुत वर्षों तक धर्मोपदेश देकर अन्त में गिरनार पर्वत पर सुदीर्घ तपश्चरण के पश्चात् तीर्थंकर नेमिनाथ जी ने मोक्ष प्राप्त किया । इस प्रकार उन्होंने जैन धर्म के मूल सिद्धान्त 'अहिंसा' और 'तप' को चरितार्थ कर श्रमण परम्परा की पुष्टि की थी।
राजमती सच्चे मन से नेमिनाथ को वर चुकी थी। वह परम पतिव्रता थी। अतः जब उसे अपने भावी प्राणनाथ की विरक्ति का पता चला तो बहुतों के समझाने पर भी वह दूसरे से विवाह करने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुई और नेमिनाथ के पास गिरनार पहुंचकर उन्हीं से दीक्षा ग्रहण कर तपस्विनी बन गई। इस प्रकार राजमती ने एक बार मन से निश्चित किये हुए पति के अतिरिक्त किसी से भी विवाह न कर अपने पति का अनुगमन करके महान् सती का आदर्श उपस्थित किया। जैन समाज में जिस तरह भगवान् नेमिनाथ का स्मरण व स्तवन किया जाता है, उसी प्रकार २४ महासतियों में राजमती का पवित्र नाम भी प्रातःस्मरणीय है।
अब से कुछ समय पूर्व तक इतिहासकार श्री नेमिनाथ जी की ऐतिहासिकता पर विश्वास नहीं करते थे, किन्तु ऐसा नहीं है। कितने ही इतिहासज्ञ एवं पुरातत्वज्ञ अब उनके ऐतिहासिक होने में सन्देह नहीं करते । नेमिनाथ श्रीकृष्ण के ताऊजात भाई थे और श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है । अतः नेमिनाथ जी को ऐतिहासिक महापुरुष न मानने का कोई कारण-विशेष प्रतीत नहीं होता। वे भी अपने चचेरे भाई कृष्ण की तरह ही ऐतिहासिक महापुरुष हैं। दोनों का समय महाभारत-युद्ध-पूर्व है', उसे ही कृष्ण-काल कहा जाता है।
श्रीकृष्ण किस काल में विद्यमान थे, इस विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । आधुनिक विद्वान् इतिहास और पुरातत्व के जिन अनुसंधानों के आधार पर कृष्ण-काल को ३५०० वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते वे एकांगी और अपूर्ण हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार वह ५००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। यह मान्यता कोरी कल्पना अथवा किंवदंती पर आधारित नहीं है, अपितु इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार है । ज्योतिष, पुरातत्व और इतिहास के प्रमाणों से परिपुष्ट इस भारतीय मान्यता को न स्वीकारने का कोई कारण नहीं है। अतः नेमिनाथ जी का समय भी यही है।
नेमिनाथ जी की ऐतिहासिकता का एक पुरातात्विक प्रमाण भी प्राप्त हुआ है । डा० प्राणनाथ विद्यालंकार ने १६ मार्च, १९५५ के साप्ताहिक 'टाइम्स आफ इण्डिया' में काठियावाड़ से प्राप्त एक प्राचीन ताम्र शासन पत्र का विवरण प्रकाशित कराया था। उनके अनुसार इस दान-पत्र पर अंकित लेख का भाव यह है कि सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के खिल्दियन सम्राट नेबुचेद नजर ने जो रेवा नगर (काठियावाड़) का अधिपति है, यदुराज की इस भूमि (द्वारका) में आकर रेवाचल (गिरनार) के स्वामी नेमिनाथ की भक्ति की तथा उनकी सेवा में दान अर्पित किया।" इस पर उनकी मुद्रा भी अंकित है। उनका काल ११४० ई० पू० अनुमान किया जाता है। इस दान पत्र की उपलब्धि के पश्चात् तो नेमिनाथ जी की ऐतिहासिकता एवं समय पर सन्देह करने का कोई कारण ही शेष नहीं रहता।
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१. कैवल्य-प्राप्ति के बाद अरिष्टनेमि हो नेमिनाथ कहलाये और उन्हें तीर्थकर माना गया । इनके कारण शूरसेन प्रदेश और कृष्ण का जन्मस्थान मथुरा नगर
जैन धर्म के तीर्थ-स्थल माने जाने लगे। २. माध्यात्मिक विकास के उच्चतम शिखर पर पहुंचने वाले महापुरुषों को जैन धर्म में तीर्थकर कहा जाता है। तीर्थकर राग-द्वेष, भय, माश्चर्य, क्रोध,
मान, माया, लोभ, चिन्ता प्रादि विकारों से सर्वथा रहित होते हैं तथा केबलदर्शन और केवलज्ञान से युक्त होते हैं। कुछ महानुभावों का अनुमान है कि जिन अरिष्टनेमि का नामोल्लेख वेदों में हुमा है, वे ये ही २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ जी हैं। इसी प्रकार का अनुमान कुछ विद्वान श्रीकृष्ण के संबंध में भी करते हैं, किन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है। ऋग्वेद में उल्लिखित अरिष्टनेमि तथा कृष्ण २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा उनके चचेरे भाईधीकृष्ण नहीं हो सकते, क्योंकि इन दोनों का समय महाभारतकालीन है और ऋग्वेद भारत का ही नहीं समस्त संसार का प्राचीनतम ग्रंथ है । जब उसके सूत्रों की रचना नेमिनाथ एवं कृष्ण से पहले हुई तब उसमें परवर्ती इन दोनों का नामोल्लेख कसे संभव हो सकता है । अत:
ऋग्वेद के परिष्टनेमि तथा कृष्ण इन दोनों से भिन्न कोई वैदिक ऋषि जान पड़ते हैं। ४. इस बात की पूरी संभावना है कि ऐसे अनुसंधानों के पूर्ण होने पर वे भी इस संबंध में भारतीय मान्यता का ही समर्थन करेंगे। १. कुछ लोगों का पनुमान है कि तीर्थंकर नेमिनाथ जी के ही समय में 'ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती' भी हए। प्रत: विद्वानों को इस संबंध में शोधात्मक प्रकाश डामना
चाहिये।
बैन साहित्यानुशीलन
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