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प्रचलन पर्याप्त संख्या में था और यास्क ने भी उस प्रकार के सकेत किये हैं, पर, उनका व्युत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषात्मक अनुसन्धानकार्य उन्हीं प्रचलित भाषाओं की सीमा में है, जो उनके समक्ष थी। जो भी हुआ, जितना भी हुआ, उस समय की स्थितियों के परिपार्श्व में स्तुत्य कार्य था । संसार के भाषा-शास्त्रीय विकास के इतिहास में उसका अनुपम स्थान रहेगा।
निधण्ट के रूप में यास्क के सामने वेद के शब्दों की सूची विद्यमान थी, जिसके पाँच अध्याय हैं । निरुक्त में निघण्टु में उल्लिखित प्रत्येक शब्द की पृथक्-पृथक व्युत्पति प्रदर्शित की गई है। निरुक्त कार के निघण्टु के शब्दों का अर्थ स्थापित करने का वास्तव में सफल प्रयास किया है। उन्होंने अपने द्वारा स्थाप्यमान अर्थ की पुष्टि के हेतु स्थान-स्थान पर वैदिक संहिताओं को भी उद्धृत किया है । अर्थ-विज्ञान के सन्दर्भ में इस प्रकार के अध्ययन का विश्व में यह पहला प्रयास था। भारतवर्ष में यास्क के समय तक अर्थ-विज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय चचित हो चुके थे । यास्क ने स्वयं औदुम्बरायण, वार्ष्याय णि, गाय, गालव, शाकटायन आदि अपने से पूर्ववर्ती या समसामयिक आचार्यों का उल्लेख करते हुए उनके मतों को उद्धृत किया है । उदाहरणार्थ, यास्क ने पद के चार भेद किये हैं-नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । उस प्रसंग में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य औदुम्बरायण का मत उद्धृत करते हुए शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व जैसे गहन विषय की चर्चा की है। यास्क के अनुसार आख्यात भाव-प्रधान है। उसके सन्दर्भ में उन्होंने भावविकार के विषय में आचार्य वार्ष्यायणि के विचार उपस्थित कर अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। वास्तव में यास्क का निरूपण-क्रम अनुसन्धानात्मक और समीक्षात्मक पद्धति पर आधृत है । उत्तरवर्ती भाषा-वैज्ञानिकों के लिए वह निःसन्देह प्रेरणादायक सिद्ध हुआ।
यास्क के व्यक्तित्व की महता इससे और सिद्ध हो जाती है कि अस्पष्ट शब्दों के लिए उन्होंने आग्रह नहीं किया, अपितु उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया कि वे शब्द उनके लिए स्पष्ट नहीं हैं। उन्होंने शब्दों पर विचार करते हुए भाषा की उत्पति और गठन आदि पर भी जहां-तहां कुछ संकेत किया है। सबसे पहले उन्होंने यह स्थापना की कि प्रत्येक संज्ञा को व्युत्पत्ति धातु से है। यद्यपि यह मत समालोचनीय है, पर, इसका अपना महत्त्व अवश्य है । आगे चलकर महान् वैयाकरण पाणिनि ने भी धातु-सिद्धान्त को प्रतिपादित किया ।
यास्क द्वारा विवेचित व्युत्पति-क्रम को जानने के लिए एक उदाहरण उपयोगी होगा। 'आचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वे लिखते हैं : आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचारं ग्राह्यति, आचिनोत्यर्थान् आचिनोति बुद्धिमिति वा । जो आचार-ग्रहण करवाता है अथवा अर्थों का आचयन करता है, अन्तेवासी को पदार्थों का बोध करवाता है अथवा अन्तेवासी में बुद्धि का संचय करता है, वह 'आचार्य' कहा जाता है।
__श्मशान' शब्द की व्युत्पति करते हुए यास्क लिखते हैं : श्मशानम् श्मशयनम् । श्म = शरीरम् । शरीरं शूगाते । शम्नाते: वा । श्म-शरीर जहां शयन करता है, चिर निद्रा में सोता है, वह 'श्मशान' कहा जाता है ।
महान् वैयाकरण पाणिनि-यास्क के अनन्तर महान् वैयाकरण पाणिनि को भाषा-विज्ञान के विकास के सन्दर्भ में सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के गठन के अन्तर्गत पद-विज्ञान आदि का भी गम्भीर और वैज्ञानिक विवेचन किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों आपिशलि, काशकृत्स्न आदि का भी उल्लेख किया। पाणिनि के पूर्ववर्ती एक बहुत बड़े वैयाकरण इन्द्र थे । तैत्तरीय-संहिता इन्हें प्रथम वैयाकरण सिद्ध करती है । वहां लिखा है : "देवताओं ने इन्द्र से कहा-हमें भाषा को व्याकृत कर समझाइए'।"
इन्द्र ने वैसा किया । इन्द्र का वैयाकरण-सम्पदाय पाणिनि के पूर्व एवं पश्चात् भी चलता रहा । वर्तमान में जो प्रातिशाख्य प्राप्त हैं, वे इसी सम्प्रदाय के हैं। वात्तिककार कात्यायन भी इसी सम्प्रदाय के थे।
पाणिनि ने पूर्ववर्ती वैयाकरणों के महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य का सार अष्टाध्यायी में समाविष्ट किया। उन्होंने कतिपय प्रसंगों में उदीच्य और प्राच्य सम्प्रदायों की भी चर्चा की है। कथासरित्सागर में सोमदेव ने लिखा है कि पाणिनि के गुरु का नाम उपाध्याय वर्ष था। कात्यायन, व्याडि और इन्द्रदत्त इनके सहपाठी थे । पाणिनि ने माहेश्वर सूत्रों के रूप में व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी देन दी है। माहेश्वर सूत्रों की कुछ अनुपम विशेषताएं हैं। उनमें ध्वनियों का स्थान एवं प्रयत्न के अनुसार जो वर्गीकरण किया गया है। वह ध्वनि-विज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है।
पाणिनि की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उन्होंने केवल चौदह सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार आदि के सहारे संस्कृत जैसी जटिल और कठिन भाषा को संक्षेप में बांध दिया । ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी वह भाषा किंचित् भी इधर-उधर नहीं हो सकी अपने परिनिष्ठित रूप में यथावत बनी रह सकी। उन्होंने नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात के रूप में यास्क द्वारा किये गये पद-विभागों
१. वग्व प्राच्य व्याकृताऽवदत् । ते देवा इन्दमब वन्निमां नो वाचं व्याकृर्विति । तमिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् ।
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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