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१३. भाष्य
श्रुतकीति ने 'भाष्योऽथ शय्यातलम" शब्दों के द्वारा जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए भाष्य की ओर संकेत किया है।' पञ्चवस्तु प्रक्रिया (१२वीं शताब्दी ई.) में भाष्य का उल्लेख होने से इतना स्पष्ट है कि इस भाष्य की रचना १२वीं शताब्दी
ई० से पूर्व ही हो चुकी थी। जनेन्द्र-व्याकरण के खिलपाठ तथा तत्सम्बद्ध टोकाएं
प्रत्येक व्याकरण के चार खिलपाठ होते हैं-धातुपाठ, उणादिपाठ, लिङ्गानुशासनपाठ एवं गणपाठ । उपर्युक्त चारों पाठों से युक्त व्याकरण-ग्रन्थ पञ्चाङ्गपूर्ण कहलाता है। पाणिनि के पश्चात् लिखे गए जनेन्द्र-व्याकरण के पांचों अंगों की रचना की गई थी उनमें से कुछ तो उपलब्ध हैं एवं कुछ अनुपलब्ध हैं। धातुपाठ
जैनेन्द्र-व्याकरण के औदीच्य एवं दाक्षिणात्य ये दो संस्करण हैं। औदीच्य-संस्करण पूज्यपाद देवनन्दी की कृति है। दाक्षिणात्य संस्करण जो कि शब्दार्णव नाम से भी प्रसिद्ध है गुणनन्दी की कृति है। पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार काशी से प्रकाशित शब्दार्णवव्याकरण के अन्त में छपा हुआ धातुपाठ गुणनन्दी द्वारा संस्कृत है। उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिए निम्न प्रमाण प्रस्तुत किए हैं
जैनेन्द्र महावृत्ति (१/२/७३) में मित्संज्ञाप्रतिषेधक “यमोऽपरिवेषणे" धातुसूत्र उद्धृत किया गया है। पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा दिए गए धातुपाठ में न तो किसी मित्संज्ञाविधायक सूत्र का निर्देश किया गया है और न ही प्रतिषेधक सूत्र का। प्राचीन धातुग्रन्थों में "नन्दी" के नाम से प्राप्त धातु-निर्देशों का धातुपाठ में उसी रूप में उल्लेख नहीं मिलता। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्तमान जैनेन्द्र-धातुपाठ आचार्य गुणनन्दी द्वारा परिष्कृत है।
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के निर्देशानुसार भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित जैनेन्द्र-महावृत्ति के अन्त में गुणनन्दी द्वारा संशोधित पाठ ही छपा है।' इस धातुपाठ के अन्त में निर्दिष्ट श्लोक से भी गुणनन्दी जैनेन्द्र धातुपाठ के परिष्कर्ता सिद्ध होते हैं। जैनेन्द्रधातुपाठ में वैदिक प्रयोगों से सम्बद्ध धातुओं का अभाव है। आत्मनेपदी धातुओं से 'ङ' एवं' 'ऐ' अनुबंधों का निर्देश किया गया है । '' अनुबन्ध उभयपदी धातुओं का द्योतक है तथा अनुबन्ध रहित धातुएं परस्मैपदी हैं। धातुपाठ में परस्मैपदी धातुओं को “मवंतः' कहा गया है । जैनेन्द्र-धातुपाठ में भ्वादिगण के आरम्भ में आत्मनेपदी (ऊँदित्)धातुओं का पाठ है तथा तत्पश्चात् परस्मैपदी (मवन्त) एवं उभयपदी (जित्)धातुएँ पढ़ी गई हैं। ऐसा होते हुए भी परम्परा का अनुसरण करते हुए भू धातु को धातुपाठ के आरम्भ में ही स्थान दिया गया है। धातुपाठ में ह्वादिगण की धातुओं का अदादिगण की धातुओं से पहले निर्देश किया गया है। अन्य गणों का क्रम पारम्परिक ही है। यहाँ "औं" अनबन्ध अनिट् धातुओं का सूचक है । जैनेन्द्र-धातुपाठ में सभी षित् एवं ओदित् धातुओं को क्रमश: '' एवं 'ओ' अनुबन्धों सहित पढ़ा गया है। जबकि अष्टाध्यायी के धातुपाठ में धातुओं को कहीं तो उपर्युक्त अनुबन्धों सहित पढ़ा है तथा कहीं उन धातुओं से उपर्युक्त अनुबन्धों का निर्देश न करते हुए उनको उन अनुबन्धों से युक्त घोषित किया है। उदाहरण के लिए पाणिनि ने घटादि धातुओं को षित् तथा स्वादि धातु ओं को ओदित् घोषित किया है । जैनेन्द्र धातुपाठ में चुरादिगण की धातुएँ दो वर्गों में विभक्त की गई हैं। प्रथम वर्ग के
१. भाष्योऽष शय्यातलम, प्रेमी, नाथूराम, जैन सा० इ०.१० ३३ पर उद्धत । २. मीमांसक, युधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०, द्वितीय भाग, हरयाणा, वि० सं० २०३०, पृ. ११८. ३. वही. ४. पादाम्भोजानमन्मानवपतिमकुटानय॑माणिक्यतारानीकासंसेविताद्यद्य तिललितनखानीकशीतांश बिम्बः | दुर्वारानङ्गबाणाम्बुरुहहिमकरोद्ध्वस्तमिथ्यान्धकार: शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीशस्सुसौख्यः ॥
-(जनेन्द्र-धातुपाठ के अंत में दी गई पुष्पिका), जै० म०५०, १०५०५. ५. वही, पृ. ४६२. ६. वही, पृ० ४६६. ७. घटादयः पित:, क्षीरस्वामी, क्षीरतरङ्गिणी, सम्पा० युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर, ट्रस्ट, वि० सं० २०१४, पाणिनीय धातुपाठ १/५२२. ८. स्वादय मोदितः, पा० धा०, ४/३१. ६. जै० म० ३०, पृ०५०२-५०५, (१-३१२ तक की धातुएँ)
जैन धर्म एवं आचार
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