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वादियों द्वारा किया जाने वाला वाद परस्पर पणबन्ध से (शर्त बांध कर) होता है। प्राय: वादी-प्रतिवादी वादकाल में किए गए पणबन्ध में अत्युक्ति, देहदण्ड, सर्वस्वहरण, अभद्र वाक्य आदि सभ्यव्यवहारानुचित ऐसी विधियों का आलम्बन कर बैठते हैं जो वाद में नहीं अपितु जल्प अथवा वितण्डा आदि शास्त्रार्थ-प्रकारों में सन्निहित की जा सकती हैं। यह जल्प अथवा वितण्डादि शास्त्रार्थ-प्रकार जैनाचार्यों को परम्परया अभीष्ट नहीं हैं । जैन-परम्परा मूलत: शान्तिप्रिय रही है अतः उस परम्परा के आचार्य भी परस्पर शास्त्रार्थ काल में पूर्णत: शान्तिपरक ज्ञानतत्त्वान्वेषिणी विधा का अवलम्बन करके केवल वाद नामक शास्त्रार्थपरम्परा के माध्यम से ही शास्त्रार्थनिर्णय की स्वीकृत देते हैं । इन कारणों को ध्यान में रखकर ही सभापति को वादनिर्णय करते समय कलाकारों के गण-दोषों का तारतम्य जानकर न केवल जय-पराजय-निर्णय करना चाहिये अपितु पणबन्ध में किये गए अत्युक्ति, देहदण्ड, सर्वस्वहरण और अभद्रवाक्य आदि का निवारण भी सपदि कर देना चाहिये ।
संगीतशास्त्र में “संगीत" पद से गीत, वाद्य एवं नृत्त इन तीनों का ग्रहण किया जाता है। इनमें नृत को वाद्य तथा वाद्य को गीत का अनुवर्ती मान कर गीत अर्थात् गायन विधा को श्रेष्ठ माना गया है। संगीतशास्त्र में प्रायः सर्वत्र गायन का महत्व एवं उपयोग सुवणित है ।' अत: गायन के माध्यमभूत "गारकों" में संगीतशा स्त्रियों ने विभिन्न विशेष आकांक्षाओं को परिकल्पित किया है जिन्हें परत: गायक-वादनिर्णय" के आधाररूप में भी स्वीकार किया गया।
इन विशेषताओं में प्रथमत: गायक में "सशारीर" ध्वनि की आकांक्षा की जाती है । इसका महत्व इसके लक्षण से ही स्पष्ट है जो सभी आचार्यों में निविवाद तथा एक-सा ही है
"बिना किसी अभ्यास के ही, प्रारम्भिक एवं मुख्यादि स्वरसंनिवेश से युक्त तत्तद् रागों को, विस्वरता और संकरता प्रभति दोषों से बचाकर प्रकट करने की सामर्थ्य से युक्त ऐसी ध्वनि जो शरीर के साथ हो उद्भूत होती है, शारीर के नाम से जानी जाती है। उपर्युक्त सामर्थ्य एक विशिष्ट संस्कार का नाम है जो रागाभिव्यक्ति का बीज है जिसके बिना या तो राग का प्रकाशन ही नहीं हो पायेगा अथवा यथाकथंचित् प्रकाशन होने पर निश्चित रूप में वह हास्य का कारण होगा। यह सामर्थ्य अभ्यास से प्राप्त नहीं हो सकती लेकिन विकसित अवश्य हो सकती है।
इस शारीर ध्वनि में जब तारस्थान में भी माधुर्य, स्निग्धता, गाम्भीर्य, मार्दव, रंजकता, पुष्टता, कान्तिमत्त्व एवं अनुरणनात्मकता आदि गुण विद्यमान रहें तो इसे ही सुशारीर के नाम से जाना जाता है। यह सुशारीर ध्वनि, विद्या के दान से तपस्या से अथवा पार्वतीपति भगवान् शंकर की भक्ति से उत्पन्न अत्यधिक भाग्योदय के कारण ही प्राप्त हो सकती है। अन्यथा सामान्यतः संसार में अनुरणनरहितता, रूक्षता, रंज कताराहित्य, निर्बलता, विस्वरता, काकित्व (कौए सी आवाज होना), मन्द्रमध्यतारादि स्थानों में से किसी एक में गायन न कर सकना, ध्वनि का कृश एवं कर्कश होना आदि दोषों से युक्त "कुशारीर" ध्वनि वाले अनेकश: गायक दृष्टिगोचर होते हैं। यह निश्चित रूप में त्याज्य ही माने जाते हैं।
आचार्य पार्श्वदेव ने भी इन सभी विषेषताओं अथवा दोषों को माना है परन्तु इनका वर्गीकरण पृथक्-पृथक् किया है जो पूर्वाचार्यों से निश्चित ही इनका मतवैभिन्य दर्शाता है। उनके अनुसार शारीरध्वनि के चार भेद हैं : (i) कडाल, (ii) मधुर, (ii) पेशल (iv) बहुभङ्गी । इनका विवरण निम्न प्रकार से दिया गया है
१. द्रष्टव्य-प्रमेयकमलमार्तण्ड, जय-पराजय व्यवस्था प्रकरण (१९४१) निर्णयसागर प्रस। २. संगीतसमयसार-६.२०६, ३. संगीतरत्नाकर-१९७६ संस्करण, प्राड्यार लाईब्रेरी मद्रास, स्वरगताध्याय पदार्थसंग्रहप्रकरण २४-३०.
संगीतरत्नाकर ३,८२. तुलनीय संगीतदर्पण, १६५२ मद्रास गवर्नमेन्ट मोरियण्टल सीरिज ३१७.३१८, तथा संगीतसमयसार २.३२. संगीतरत्नाकर ३.८२ पर कल्लिनाथी टीका सगीतरत्नाकर ३.८३.८४.
तुलनीय संगीतदर्पण ३१८-३१९. ७. संगीतरत्नाकर ३.८६
तुलनीय संगीतदर्पण ३२१. ८. संगीतरत्नाकर-३.८४.८५
तुलनीय संगीतदर्पण ३२०-३२१. जैन प्राच्य विद्याएं
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