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प्रतिनारायण रावण का जीव पहले 'सारसमुच्चय' नामक देश में नरदेव नामक राजा था। फिर सौधर्म स्वर्ग में सुख का भण्डार स्वरूप देव हुआ और तदनन्तर वहां से च्युत होकर इसी भरत क्षेत्र के राजा विनमि विद्याधर के वंश में, समस्त विद्याधरों के देदीप्यमान मस्तकों की माला पर आक्रमण करने वाला, स्त्री-लम्पट, अपने वंश को नष्ट करने के लिए केतु के समान तथा दुराचारियों में अग्रसर 'रावण' नाम से प्रसिद्ध हुआ।
प्रतिनारायण सदा नारायण का विरोधी होता था। वह हमेशा उनके विरुद्ध युद्ध करता था। अंत में अपने ही चक्र रत्न द्वारा नारायण के हाथ से मृत्यु को प्राप्त करता था। जैन परम्परानुसार वह सातवें नरक में जाता था। रामकथा का प्रतिनारायण रावण भी लक्ष्मण द्वारा मृत्यु को प्राप्त करने के उपरान्त नरक-गति को प्राप्त हुआ था। इस प्रकार आचार्य गुणभद्र का यह कथन कि पापी मनुष्यों की यही गति होती है, सत्य ही प्रतीत होता है।
जैन धर्म तथा प्राचार
उत्तरपुराण के रामकथा-सम्बन्धी अंश के अध्ययन से जैन धर्म तथा आचार-विषयक बहुत-सी बातों का ज्ञान होता है। रामकथा से सम्बन्धित सभी प्रमुख पात्र जैन आचरण करते हैं तथा निर्वाण आदि को प्राप्त करते हैं।
श्रावकव्रत ग्रहण-उत्तरपुराण के अनुसार राम एक बार शिवराज गुप्त जिनराज से धर्म-विषयक प्रश्न पूछते हैं । शिवराज गुप्त जिनराज विविध प्रकार के धर्म-सम्बन्धी पदार्थों का विवेचन करते हैं। इस प्रकार धर्म के विशेष स्वरूप को सुनने के बाद राम श्रावकव्रत ग्रहण करते हैं ।। जैन परम्परानुसार भगवान् जिनेन्द्र की पूजा की जाती है। उत्तरपुराण में भी राम के साथ-साथ जितने भी अन्य लोग श्रावक व्रत ग्रहण करते हैं, वे सभी भगवान् जिनेद्र के चरणयुगल को अच्छी तरह से नमस्कार करते हैं । उसके बाद वे लोग नगरी में प्रविष्ट होते हैं।
दीक्षा-ग्रहण-नारायण की मृत्यु के बाद बलभद्र शोकाकुल होकर जैनधर्म में दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । लक्ष्मण की मृत्यु के बाद बलभद्र राम ने भी लक्ष्मण के पुत्र को राजा बनाया तथा अपने पुत्र को युवराज बनाकर स्वयं संसार, शरीर तथा भोगों से विरक्त हो गए तथा संयम धारण किया ।
श्रत केवली बनना-लक्ष्मण के शोक से विरक्त होने के बाद राम अयोध्या नगरी के सिद्धार्थ नामक वन में पहुंचते हैं जो कि भगवान वृषभदेव का दीक्षा-कल्याण का स्थान था। वहीं पर जाकर राम संयम धारण करते हैं तथा एक महाप्रतापी केवली शिवगुप्त के पास जाकर संसार और मोक्ष के कारण तथा फल को भली प्रकार समझते हैं।
आचार्य गुणभद्र ने कथा को जैनधर्मानुरूप ढालने के लिए उत्तरपुराण में राम के लिए 'राम मुनि' शब्द का प्रयोग किया है । बाद में वे विधिपूर्वक मोक्षमार्ग का अनुसरण कर श्रुतकेवली बन जाते हैं।
केवल-ज्ञान उत्पन्न होना-उत्तरपुराण में वर्णित रामकथा के अनुसार, राम छद्मावस्था में....-अर्थात् श्रुतकेवली की दशा में--- ३६५ वर्ष व्यतीत करते हैं । ३६५ वर्ष व्यतीत हो जाने पर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का क्षय करने वाले मुनिराज राम को सूर्य बिम्ब के समान केवल-ज्ञान की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार राम जैन परम्परानुसार कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं।
सिद्ध क्षेत्र प्राप्त करना-कैवल्यज्ञान की अवस्था में ६०० वर्ष व्यतीत करने के बाद फाल्गुन मास की शुक्ल चतुर्दशी को प्रातःकाल मुनिराज राम सम्मेदाचल के शिखर पर तीसरा शुक्लध्यान धारण करते हैं। तथा तीनों योगों का निरोध करते हैं । उसके बाद समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाती नामक चौथे शुक्लध्यान के आश्रय से समस्त अघातिया कर्मों का क्षय करते हैं । इस प्रकार औदरिक, तैजस और कार्मण इन
१. उ०पु०, ६८/७२८ २. 'सोऽपि प्रागेव बद्धायुदंराचारादधोगतिम् ।
प्रापदापत्करी घोरा पापिनां का परा गतिः ।' उ०पू०, ६८/६३० ३. उ०पु०, ६८/६३० ४. 'सर्वे रामादयोऽभूवन् गृहीतोपासकव्रताः ।' उ०पु०, ६८/६८६ ५. उ.पु०,६८/७१३ ६. 'अशीतिशतपुर्वश्च सह संयममाप्तवान् ।' उ० पु०, ६८/७११ ७. उ० पु०, ६८/७१४ ८. 'रामस्य केवलज्ञानमुदपाद्य बिम्बवत् । उ० पु०, ६८/७१६
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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