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(इ) ऐसौ परमागम बनारसी बखान जामैं, ___ ग्यान को निदान सुख चारित की चोष है। (नाटक समयसार, उत्थानिका, पृष्ठ २६) (६) जो जान भेद बखान सरवहि, शब्द अर्थ बिचारसी।
सो होय कर्मविनाश निर्मल, शिवस्वरूप बनारसी। (बनारसीविलास, पृष्ठ १२४) इन उक्तियों पर विचार करने के पूर्व द्वितीय अवतरण का स्पष्टीकरण अभीष्ट है। इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि 'समयसार' नाटक मोक्ष-मार्ग की ओर प्रवृत्त कर कर्मजनित विकारों के वमन (बौन ) अर्थात् नाश की प्रेरणा देता है, इसके रस-क्षेत्र में विद्वज्जन लवण की भाँति लीन हो जाते हैं, इसमें सम्यक् दर्शन आदि गुणों और मुक्ति-मार्ग की सहज अभिव्यक्ति है, इसकी महिमा को प्रकट करने में इन्द्र भी संकुचित होता है, इसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करनेवाले व्यक्ति पक्षी की भाँति ज्ञान-गगन में उड़ते हैं, इससे विरत प्राणी भव-जाल में उलझ जाते हैं, इसमें स्वर्ण-जैसी कान्तिवाले भाव हैं और विराट् प्रभु की महिमा इसमें विस्तारपूर्वक वणित है, जिसे सुनने पर मन के रुद्ध द्वार खुल जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने विकारनाश, ज्ञान-प्रेरणा और मोक्ष-प्राप्ति को भक्तिकाव्य की सहज सिद्धियां स्वीकार किया है। बनारसीदास के दृष्टिकोण के सम्यक् परिचय के लिए 'ग्यानकला', 'नाटक आगम','सिव-मारग', 'शिवस्वरूप', 'करम को करै बौन', 'रस-भौन बुध लौन ज्यों घुलत हैं', 'हीये फाटक खुलत है', 'सरदहि' और 'शब्द अर्थ बिचारसी' प्रयोग व्याख्यासापेक्ष हैं :
(१) प्रथम उद्धरण में 'ग्यानकला' शब्द कवि के रचना-विवेक का परिचायक है। विवेक-सम्पन्न कवि की कृति में ही उन गुणों का समाहार सम्भव है जिनसे सहृदय के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार होता है-'याही के जु पच्छी ते उड़त ग्यान गगन में' से यही अभिव्यंजित है। 'नाटक आगम' में भी अध्ययनजनित ज्ञान-साधना को साहित्य-क्षेत्र की सहज प्रवृत्ति माना गया है। 'नाटक' साहित्य की विधाविशेष है और 'आगम' शास्त्र का पर्याय है; इन दोनों के सहभाव का अर्थ है-साहित्य के लालित्य और शास्त्र की ज्ञानधारा में समन्वय की स्थापना । इस प्रकार बनारसीदास विचार-क्षेत्र की कोरी सिद्धान्तवादिता के समर्थक प्रतीत नहीं होते, उन्होंने भावांचल-परिवेष्टित विचारसामग्री को ही महत्त्व दिया है । प्रमाता की भावप्रवणता और काव्यानुशीलन से विचारोद्दीपन को उन्होंने एक ही मनःस्थिति की विकासशृंखला माना है।
(२) 'सिवमारग' का प्रयोग लोकमंगल की सिद्धि के अर्थ में हुआ है। इस लक्ष्य की उपलब्धि तभी सम्भव है जब रचयिता विकार-मुक्त होकर सद्भावभावित काव्य की रचना में प्रवृत्त हो, क्योंकि आत्मपरिष्कार के अभाव में लोक-परिष्कार की प्रेरणा देना सामान्यत: सरल नहीं है; और यदि वाक्छल का आश्रय लेकर कोई ऐसा मुखौटा धारण कर भी ले तो उसकी कृति में अनुभूति की गहनता और प्रेषणीयता का समावेश नहीं हो पाएगा। शुक्ल जी के शब्दों में, "कविता मनुष्य के हृदय को स्वार्थसम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोकसामान्य भावभूमि पर ले जाती है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रचनात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।" (चिन्तामणि, पहला भाग, पृष्ठ १४१) बनारसीदास द्वारा विकार-वमन--करम को करै बौन-पर बल देना मनोविकारों के परिष्कार से कुछ भिन्न है। उन्होंने भक्तिकाव्य को विकारों के उच्छेदन का साधन पाना है तथा अरस्तू के विरेचन-सिद्धान्त के अनुरूप उसे विकारग्रस्त मन के परिशोधन में सहायक स्वीकार किया है।
(३) आलोच्य कवि ने 'रस-भौन बुध लौन ज्यों घुलत है' में काव्यशास्त्रीय विवेक का सम्यक् परिचय दिया है । वर्ण्य की दृष्टि से उनके काव्य की परिधि में शान्त रस की सामग्री का प्राधान्य है, फलतः प्रस्तुत काव्यांश में सहृदय की रसोन्मुखता का अर्थ हुआ-काव्यगत नैतिक मूल्यों के प्रति भावक के चित्त का द्रवीकरण । 'बुध' से उनका अभिप्राय ऐसे प्रमाता से है जो अपनी तत्त्वाभिनिवेशी दृष्टि से सत् और असत् के द्वन्द्व का निराकरण कर सके; शान्त रस की कविता में अवगाहन से ऐसे प्रमाता का आनन्दाभिभूत होना स्वाभाविक है । 'नाटक सुनत हीये फाटक खुलत है' द्वारा भी इसी मन्तव्य की पुष्टि होती है। सौन्दर्य-तत्त्व और नैतिक मूल्यों की समवेत अभिव्यक्ति का दृष्टिकोण उन्नीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी-कवियों को भी इतना ही मान्य रहा है।
(४) भक्तिकाव्य की रचना से मोक्ष-प्राप्ति के विश्वास का भक्तिशास्त्रज्ञ कवियों ने प्रबल समर्थन किया है-बनारसीदास की उक्ति बेगि मिटै भवबास बसेरौं' भी इसी परम्परा में आती है । किसी-किसी विद्वान् ने ऐसी काव्योक्तियों के सन्दर्भ में यह शंका प्रकट की है कि 'इस प्रयोजन की प्राप्ति काव्य द्वारा सम्भव नहीं है, श्रोत-स्मार्त ग्रन्थों द्वारा भले ही मानी जा सके।" (हिन्दी-रीति-परम्परा के प्रमुख आचार्य, डॉ. सत्यदेव चौधरी, पृष्ठ ११५) किन्तु, भक्तिकाव्य की रचना के समय समाधि-सुख जैसे आनन्द का अनुभव करनेवाले भक्त कवियों के कृतित्व की पृष्ठभूमि में यह मत ग्राह्य नहीं है।
(५) अन्तिम उद्धरण में संसार-चक्र में लिप्त व्यक्तियों के लिए ज्ञानराशि के साक्षात्कार को पापनाशक कहा गया है, किन्तु जैन साहित्यानुशीलन
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