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जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकार द्यानतराय प्रणीत 'श्री रत्नत्रय पूजा' नामक रचना में 'धूप' शब्द का उल्लेख मिलता है।' उन्नीसवीं शती के पूजा कवि कमलनयन प्रणीत श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ' नामक कृति में 'धूप' शब्द का व्यवहार दष्टिगोचर होता है।' बीसवीं शती के पूजा रचयिता जिनेश्वर दास विरचित 'श्री चन्द्र प्रभु पूजा' नामक रचना में 'धूप' शब्द इसी आशय से गृहीत है।'
फल-फलं मोक्ष प्रापयति इति फलम् । फल का लौकिक अर्थ परिणाम है। जैन धर्म में फल शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में हआ है। पूजा प्रसंग में मोक्ष पद को प्राप्त करने के लिए क्षेपण किया गया द्रव्य वस्तुतः फल कहलाता है।
जैन-हिन्दी-पूजा में दुःखदायी कर्म के फल को नाश करने के लिए मोक्ष का बोध देने वाले वीतराग प्रभो के आगे सरस, पके फल चढ़ाते हैं फलस्वरूप भक्त को आत्मसिद्धि रूप मोक्ष फल प्राप्त हो।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजा कवि द्यानतराय ने फल शब्द का व्यवहार 'श्री सोलह कारण पूजा' नामक रचना में किया है। उन्नीसवीं शती के पूजाकार मल्लजी रचित 'श्री क्षमावाणी पूजा' नामक रचना में फल शब्द उक्त अभिप्राय से अभिव्यक्त है। बीसवीं शती के पूजा प्रणेता युगल किशोर 'युगल' द्वारा विरचित 'श्री देवशास्त्र गुरु पूजा' नामक रचना में फल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ-व्यञ्जना में हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन भक्त्यात्मक प्रसंग में पूजा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्रव्य पूजा में अष्ट द्रव्यों का उपयोग असंदिग्ध है। यहां इन सभी द्रव्यों में जिस अर्थ अभिप्राय को व्यक्त किया गया है, हिन्दी-जैन-पूजा-काव्य में वह विभिन्न शताब्दियों के रचयिताओं द्वारा सफलतापूर्वक व्यवहृत है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य मूल रूप में प्रवृत्ति से निवृत्ति का संदेश देता है साथ ही भक्त को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देता है।
बौद्ध धर्म में बोधचित्तोत्पाद के बिना कोई व्यक्ति बोधिसत्त्व की चर्या भर्थात् शिक्षा ग्रहण का अधिकारी नहीं होता। बोधिचित्त-ग्रहण के लिए सबसे पहले बुद्ध, सद्धर्म तथा बोधिसत्त्वगण की पूजा आवश्यक है । यह पूजा मनोमय पूजा है । शान्तिदेव मनोमय पूजा का हेतु देते हैं :
अपुण्यवानस्मि महादरिद्र : पूजार्थमन्यन्मम नास्ति किञ्चित् ।'
अतो ममर्थाय परार्थचित्ता गृहन्तु नाथा इदमात्मशक्त्या। बोधि० परि०२, ६ अर्थात् मैंने पुण्य नहीं किया है, मैं महादरिद्र हूँ, इसीलिए पूजा की कोई सामग्री मेरे पास नहीं है । भगवान् महाकारुणिक हैं, सर्वभूत-हित में रत हैं । अत: इस पूजोपकरण को नाथ ! ग्रहण करें। अकिंचन होने के कारण आकाशधातु का जहां तक विस्तार है, तत्पर्यन्त निखशेष पुष्प, फल, भैषज्य, रत्न, जल, रत्नमय पर्वत, वनप्रदेश, पुष्पलता, वृक्ष, कल्पवृक्ष, मनोहर तटाक तथा जितनी अन्य उपहार वस्तुएँ प्राप्त हैं, उन सबको बुद्धों तथा बोधिसत्वों के प्रति वह दान करता है, यही अनुत्तर दक्षिणा है । यद्यपि वह अकिंचन है, पर आत्मभाव उसकी निज की सम्पत्ति है, उस पर उसका स्वामित्व है। इसलिए बह बुद्ध को आत्मभाव समर्पण करता है। भक्तिभाव से प्रेरित होकर वह दासभाव स्वीकार करता है। भगवान के आश्रय में आने से वह निर्भय हो गया है। वह प्रतिज्ञा करता है कि अब मैं प्राणिमात्र का हित साधन करूँगा, पूर्वकृत पाप का अतिक्रमण करूंगा, और फिर पाप न करूंगा।
आचार्य नरेन्द्रदेव कृत बौद्ध-धर्म-दर्शन, पृ० १८६-१८७ से साभार
१. श्री रत्नत्रयपूजा, दयानतराय । २. श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ, कमलनयन । ३. श्री चंद्रप्रभपुजा, जिनेश्वरदास । ४. वसुनंदि श्रावकाचार, ४८८ ५. कटककर्मविपाकविनाशनं, सरस पक्वफल ब्रज ढोकनं । वहति मोक्षफलस्य प्रभोःपुर, कूरुत सिद्धिफलाय महाजना।। जिनपूजा का महत्त्व, श्री मोहनलाल पारसान, साद्धं शताब्दी स्मृति ग्र'थ, पृ० ५५ ६. श्री सोलहकारणपूजा, दयानतराय । ७. श्री क्षमावाणीपूजा, मल्लजी। ८. श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर 'युगल' ।
जैन साहित्यानुशीलन
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