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संस्कृत में चम्पू विधा का प्रारम्भ भी प्राकृत कथा काव्यों से मानना न्यायसंगत है क्योंकि संस्कृत में मदालसा चम्पू एवं नल चम्पू के पूर्व कोई भी चम्पू काव्य उपलब्ध नहीं है। यद्यपि दण्डी ने चम्पू का उल्लेख किया है किन्तु प्राकृत में दण्डी से पूर्व भी गद्य-पद्य मिश्रित कथाएं उपलब्ध होती हैं। इनका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दण्डी ने भी चम्पू की परिभाषा इन्हीं के आधार पर दी है। तरंगवती, समराइच्चकहा, मालाका कहाकोस पगरण, संवेग रंगशाला, पानवमीकहा कहारयणकोस, रयणचूडारायचरिवं जिनदत्तास्थान, रयणसेहरनिव कहा आदि प्राकृत कथाएं गद्य-पद्य मिश्रित हैं। इससे ज्ञात होता है कि चम्पू काव्य की दृष्टि से भी प्राकृत-कथा-साहित्य महत्त्वपूर्ण है तथा संस्कृत, हिन्दी आदि अन्य भाषाओं के लिए उपजीव्य रहा है।
२. प्रतीक काव्य का मूल प्रतीक काव्य की दृष्टि से प्राकृत-कथा-साहित्य में महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। प्रतीक रूप में धार्मिक शिक्षा प्राकृत कथा काव्य की ही देन है। इसमें कथा के पात्र प्रतीक रूप में होते हैं। जैसे 'कुवलयमालाकहा' के पात्र क्रोध, मान, माया, लोभ व मोह हैं । इन चार भवों की कथा द्वारा इन कषायों के दुष्परिणामों का विस्तार से वर्णन किया गया है। कहीं-कहीं कथा के अन्त में प्रतीकों की सैद्धान्तिक व्याख्या की गई है जैसे 'वसुदेवहिण्डी' का इब्यपुत्तकहाणग। इस प्रकार ज्ञाता धर्म कथा, सूत्र कृतांग, ठाणांग आदि आगम ग्रन्थों से लेकर कुवलयमालाकहा, वसुदेवहिण्डी आदि कथा काव्य प्रतीक काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इन्हीं के आधार पर प्रतीक काव्यों का विकास हुआ ।
४. व्यंग्यप्रधान काव्य का प्रणेता - व्यंग्य-प्रधान काव्य प्राकृत - कथा - साहित्य की देन है। प्रथम व्यंग्यप्रधान काव्य धूर्ताख्यान है जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण आदि की असम्भव एवं अविश्वसनीय बातों पर तीव्र एवं तीखा व्यंग्य करते हुए उनका प्रत्याख्यान किया गया है। यह प्राकृत-कथा-साहित्य की अनुपम कृति है। इसमें अनाचार पर व्यंग कर सदाचार की ओर मानव को प्रवृत्त किया गया है।
५. लोकतत्व से समृद्ध - साहित्य का सम्बन्ध जन-साधारण से बना रहे, इसके लिए प्राकृत कथाकारों ने जो कुछ भी 'कहा है, जन-साधारण से सम्बन्धित है एवं उन्हीं की भाषा में कहा है। इसीलिए लोक-कथा के सभी तत्त्व इसमें विद्यमान हैं । प्राकृत कथाकारों का मूल उद्देश्य जन-सामान्य के जीवन को उत्तरोत्तर ऊंचा उठाना है इसीलिए इसमें लोक-कथाओं को प्रचुर मात्रा में ग्रहण किया गया है। प्रारम्भ से ही प्राकृत कथाओं में लोक-कथाओं का प्रयोग किया गया है। प्राकृत कथा-साहित्य को लोक कथाओं का सागर कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोक-कथाओं के प्रसार में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। पैशाची भाषा में गुणादव द्वारा रचित बृहत्कथा लोककथाओं का विश्वकोश है । टीका-युग की कथाओं में लोक-कथा के तत्त्व प्रचुर परिमाण में मिलते हैं । 'आवश्यक चूर्णि' में लालच बुरी बलाय, पण्डित कौन, चतुराई का मूल्य, पड़ो और गुनो आदि कथाएं 'दसर्वकालिक कृषि में ईर्ष्या मत करो, गीदड़ की राजनीति इत्यादि कथाएं 'व्यवहार भाष्य' की भिखारी का सपना आदि कथाएं लोक-कथाओं के सुन्दर नमूने हैं।
स्वतंत्र प्राकृत कवाओं में भी लोक कथाओं का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है जैसे बसुदेव हिन्दी में शीलवती, धनधी, विमलसेना आदि की कथाएं। इसके अतिरिक्त तरंगवती समराइयका, ज्ञानपंचमी कहा, रत्नसेसर कहा आदि कथा-साहित्य लोककथाओं से भरा पड़ा है।
६. कथानक रूढ़ियां - प्राकृत-कथा-साहित्य कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से भी समृद्ध है। इसमें कई कथानक रूढ़ियों का प्रयोग किया गया है । 'हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास' नामक पुस्तक में प्राकृत-कथा-साहित्य के महत्त्व को बतलाते हुए कहा गया है कि - "अपभ्रंश तथा प्रारम्भिक हिन्दी के प्रबन्ध काव्यों में प्रयुक्त कई लोक कथात्मक रूढ़ियों का आदिस्रोत प्राकृत कथा साहित्य ही रहा है। पृथ्वीराज रासो आदि आदिकालीन हिन्दी काव्यों में ही नहीं बाद के सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों में भी ये लोककथात्मक रूड़ियां व्यवहुत हुई हैं तथा इन कथाओं का मूल स्रोत किसी न किसी रूप में प्राकृत-कथा-साहित्य में विद्यमान है ।" कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्रायः सभी प्राकृत कथा-ग्रन्थों में किया गया है । कुछ कथानकरूढ़ियां द्रष्टव्य हैं जैसे काल्पनिक रूढ़ियां, तंत्र-मंत्र सम्बन्धी रूढ़ियां, पशुपक्षी सम्बन्धी रूढ़ियां इत्यादि ।
७. कथाकल्प -- प्राकृत-कथा-साहित्य भारतीय जनता के प्रत्येक वर्ग के अचार-विचार-व्यवहार का यथार्थ एवं विस्तार से वर्णन करता है । किसी कथा का नायक मध्यमवर्गीय परिवार का है तो किसी का निम्नवर्गीय । इनमें जिस प्रकार राजा-महाराजाओं का वर्णन है उसी प्रकार सेठ साहूकार जुआरी चोर इत्यादि का भी ।
८. पशु-पक्षी की कथाओं का मूलाधार - सर्वप्रथम प्राकृत-कथा-साहित्य में पशु-पक्षी कथाएं प्राप्त होती हैं। आगम युग से ही प्राकृत में पशु-पक्षी कथाएं मिलती हैं। 'नायाधम्म कहाओ' में कुएं का मेढ़क, दो कछुए आदि कई पशु-पक्षी कथाएं हैं जिनके माध्यम से आचार व धर्म के उपदेश दिये गये हैं । नियुक्तियों, टीकाओं, भाष्यों आदि में भी पशु-पक्षी कथाएं मिलती हैं। तरंगवती, रत्नशेखर कथा, कहा- कोश प्रकरण, कुवलयमालाकहा आदि कथा ग्रन्थों में पशु-पक्षी सम्बन्धी कथाएं ग्रहण की गई हैं। डॉ० ए० बी० कीथ ने 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' नामक पुस्तक में कहा है कि "पशु कथा क्षेत्र में प्राकृत की पूर्व स्थिति के पक्ष की पुष्टि में और भी कम कहा जा सकता है।"
जैन साहित्यानुशीलन
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