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प्राकृत कथा संग्रह में कर्म की प्रधानता बताते हुए कहा है
"अहवा न दायन्वो दोसो कस्सवि केण कइयावि।
पुवज्जियकम्माओ हवंति जं सुक्खदुक्खाई ॥" अथवा किसी को कभी भी दोष नहीं देना चाहिए, पूर्वोपाजित कर्म से ही सुख-दुःख होते हैं।
इसी प्रकार अन्य कथाओं में भी भिन्न-भिन्न कथाओं के माध्यम से धार्मिक सिद्धान्त, दर्शन, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है । तरंगवती,वसुदेव हिण्डी, समरादित्य कथा, कुवलयमाला कथा,रयणसेहरीकहा, ज्ञान पंचमी कथा आदि सभी कथाग्रन्थ धार्मिक हैं तथा जैन धर्म के मूलभत सिद्धान्तों से भरपूर हैं। प्राकृत कथा साहित्य के आधार पर ही अन्य धर्मों में भी धामिक शिक्षा कथाओं के माध्यम से दी गई है।
विभिन्न भारतीय दर्शनों का उल्लेख भी इस कथा-साहित्य में हुआ है जैसे बौद्ध, चार्वाक, सांख्य, योग, मीमांसा, न्याय आदि दर्शनों के स्वरूप व सिद्धान्तों का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैसे रत्नशेखर कथा में योग के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। जैन दर्शन की सामग्री प्रचुर मात्रा में इस साहित्य में उपलब्ध होती है। जैसे—सात तत्त्व, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अष्टकर्म आदि जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का विस्तार से उल्लेख किया है।
१३. शिक्षा-जीवन के हर क्षेत्र में शिक्षा की आवश्यकता है । शिक्षा के बिना कोई भी कार्य सही ढंग से नहीं हो पाता। प्राकत कथाओं में भी स्थान-स्थान पर शिक्षा की पद्धति, विषय आदि का उल्लेख उपलब्ध होता है। स्त्री व पुरुषों के लिए शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी। उस समय सहशिक्षा पद्धति थी। लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते थे। शिक्षा मठ, गुरुकुल आदि में दी जाती थी। कुवलयमालाकहा में इसका विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इसमें बताया है कि विद्यार्थियों को व्याकरण-शास्त्र, दर्शन-शास्त्र आदि सभी विशिष्ट कलाओं एवं शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी। ज्योतिष-शास्त्र, स्वप्न विद्या, सामुद्रिक-विद्या, निमित्तशास्त्र की शिक्षा भी दी जाती थी तथा ऐसे उल्लेख भी प्राप्त होते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि बाहर से भी विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। इसके अतिरिक्त समरादित्य कथा तथा अन्य कथा-काव्यों में भी शिक्षा के साधनों, विषयों आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। ज्ञान पंचमी कथा में पुस्तकों के महत्त्व को वणित किया है।
१४. भाषा--भाषा विचारों के आदान-प्रदान का साधन है। इसके माध्यम से हम अपने विचारों को लिख या बोलकर दूसरों पर प्रकट कर सकते हैं। प्राकृत जैन साहित्य में संस्कृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, पुरानी गुजराती आदि के शब्द एवं उद्धरण स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं। कुवलयमालाकहा में १८ देशों की बोलियों एवं भाषाओं का प्रयोग व्यापारियों की बातचीत के प्रसंग में किया गया है। इनके अतिरिक्त द्रविड़ भाषा, दक्षिणी भारतीय भाषा, राक्षसी एवं मिश्र भाषा आदि के स्वरूपों आदि का उल्लेख भी कथा में किया गया है। कुवलयमाला में लगभग २५० शब्द ऐसे प्रयुक्त किये गये हैं जो कि बिल्कुल नवीन हैं तथा शब्दकोश के लिए उपयोगी हैं। इस कथा के अतिरिक्त समरा इच्चकहा, वसुदेव हिण्डी आदि कथा-ग्रन्थ भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । यदि प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि प्राकृत शब्द ही संस्कृत, अपभ्रंश आदि में जाकर कितना बदल जाता है। शब्दों के अर्थ-परिवर्तन को समझने के लिए ये कथाएं महत्त्वपूर्ण हैं । देशी शब्दों के प्रयोग का भी बाहुल्य है। यह साहित्य लोकोक्तियों, मुहावरों, कहावतों, सूक्तियों आदि से समृद्ध है । ज्ञानपंचमी कथा में प्रयुक्त लोकोक्ति देखिये
__"हत्थठियं कंकणयं को भण जोएह आरिसए।" कहावतों का एक उदाहरण देखिये
"मरइ गुडेणं चिय तस्स विसं दिज्जए कि व।" सूक्तियों का आख्यानमणि कोश में एक उदाहरण दृष्टव्य है---
"किर कस्स थिरा लच्छी, कस्स जए सासयं पिए पेम्म ।
कस्स व निच्चं जीयं, भण को व ण खंडिओ विहिणा॥" (गा० ५५२) १५. समुद्र-यात्रा एवं वाणिज्य-प्राकृत-कथा-साहित्य में समुद्र-यात्राओं एवं वाणिज्य का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। प्राकृत कथा के पात्र अधिकांशतः मध्यमवर्गीय तथा सेठ-साहूकार आदि हैं जिनका व्यापार देशान्तरों तक फैला हुआ था। व्यापारी लोग समुद्र-मार्ग से स्वर्णद्वीप, सिंहल द्वीप आदि स्थानों पर जाते थे तथा व्यापार करते थे एवं विपुल धन कमाकर लाते थे। समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा, नम्मयासुन्दरीकहा, णाण-पंचमीकहा, कहारयणकोस आदि कथाओं में समुद्र-यात्रा एवं वाणिज्य का वर्णन किया गया है।
जैन साहित्यानुशीलन
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