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२. पात्रों के प्रकारों की दृष्टि से - इस आधार पर समराइच्चकहा में कथा के तीन भेद करते हुए कहा है
"दिव्वं दिव्वमाणुसं माणुसं च।" (पृ०२) अर्थात् दिव्य, दिव्यमानुष एवं मानुष ये तीन भेद हैं। लीलावईकहा में भी कहा है
"तं जह-दिव्वा तह दिव्वमाणुसीं माणुसीं तहच्चेय।" (गा० ३५) ३. शैली के आधार पर-उद्योतन सूरि ने कुबलयमाला कहा में शैली के आधार पर कथा के प्रकारों को अभिव्यक्त करते हुए कहा है
"तओ पुण पंच कहाओ। तं जहा-सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा ।
तहावरा कहियत्ति-संकिण्णकह त्ति।" (पृ० ४, अनुच्छेद ७) अर्थात् सकल कथा, खण्ड कथा, उल्लापकथा, परिहास कथा एवं संकीर्ण कथा।
४. भाषा के आधार पर-लीलावईकहा में भाषा के आधार पर स्थूल रूप से कथाओं के संस्कृत, प्राकृत, मिश्र-ये तीन भेद बताए गए हैं :
"अण्णं सक्कय-पायय-संकिण्ण-विहा सुवण्ण-रइयाओ।
सुव्वंति महा-कइपुंगवेहि विविहाउ सुकहाउ॥" (गा० ३६) इस प्रकार प्राकृत-कथा के उपरोक्त प्रकार बताये गए हैं। प्राकृत भाषा में लिखित कथा-साहित्य विस्तार एवं गुण दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसमें कई कथाएं निबद्ध हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि एक स्थान पर इनका संकलन अत्यन्त कठिन ही नहीं, असम्भव-सा है। प्राकृत के प्रमुख कथा-ग्रन्थ
आगम-साहित्य एवं टीका-साहित्य में प्राकृत कथा-साहित्य प्रारम्भ हो चुका था तथा उसने अपना स्वरूप भी निश्चित कर लिया था। यद्यपि ये कथाएं विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखी गईं किन्तु उनमें कथा के सभी तत्त्व प्राप्त होते हैं। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री एवं डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी पुस्तकों में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
प्राकृत कथा-साहित्य के अन्तर्गत अनेक स्वतंत्र ग्रन्थ ईसा की प्रथम शती से लेकर आधुनिक युग तक लिखे गए, जिन्हें तीन भागों में बांटा गया है और जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. हरिभद्रपूर्व-युगीन स्वतंत्र प्राकृत-कथा-साहित्य
इस साहित्य से हमारा अभिप्राय उस कथा-साहित्य से है जो हरिभद्र के पूर्व लिखा गया। इसका समय प्रथम शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य का है। इस युग के प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं
(क) तरंगवई यह एक प्राचीन कृति है । इसके रचयिता पादलिप्त सूरि हैं । यह कथाग्रन्थ आज अनुपलब्ध है। इसका संक्षिप्त रूप तरंगलोला के नाम से प्राप्त होता है। इसका समय विक्रम संवत् १५१ से २१६ के मध्य है।
(ख) वसुदेव हिण्डी-भारतीय कथा-साहित्य में ही नहीं विश्व कथा-साहित्य में भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड के रचयिता संघदास गणि एवं द्वितीय के रचयिता धर्मदास गणि हैं । इसका समय तीसरी शताब्दी है।
२. हरिभद्रयुगीन प्राकृत कथा-साहित्य
इसे पूर्व से चली आती कथा-परम्परा का संघात युग भी कहते हैं । इस युग के प्रमुख कथाकार हरिभद्र हैं । इन्होंने छोटी-छोटी रचनाओं के अतिरिक्त दो विशालकाय कथाग्रन्थों की रचना भी की है । इस युग के प्रमुख कथाग्रन्थ निम्न हैं--
(क) समराइच्चकहा- यह धर्म-कथा है। इसके रचयिता हरिभद्र सूरि हैं, जिनका समय ७३० से ८३० ईस्वी माना जाता है। इसमें समरादित्य के नौ भवों की कथा वणित है।
(ख) धूर्ताख्यान -इसके रचयिता भी हरिभद्र सूरि हैं । व्यंग्य-प्रधान कथा-साहित्य में यह प्रथम कृति है। इसमें रामायण आदि की असंगत बातों पर व्यंग्य है।
(ग) लीलावईकहा-प्रेमाख्यानक आख्यायिका में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसके रचनाकार महाकवि कोअहल हैं। इसका रचनाकाल ८वीं शताब्दी है।
जैन साहित्यानुशीलन
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