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भी प्राप्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आचार्य गुणभद्र त्रिषष्टिमहापुरुषों के चरित्र-वर्णन द्वारा जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके अपने समाज के लोगों के लिए आदर्श शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं।
(क) वेद-प्रामाण्य-जैन दर्शन एक नास्तिक दर्शन कहा जाता है । यद्यपि यह भी उसी मार्ग का पथिक है जिससे होकर आस्तिक दर्शनों की विचारधारा बहती है। दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति या परम सुख की प्राप्ति इसका भी परम लक्ष्य है। कठोर तपस्या-साधना आदि के द्वारा कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का नियन्त्रण कर अन्त:करण को शुद्ध कर निर्वाण प्राप्त करना इनका भी चरम उद्देश्य है। इसीलिए जैन लोग 'सम्यकदर्शन', 'सम्यक्ज्ञान' एवं 'सम्यक्चारित्र' इन तीन रत्नों के लिए जीवन भर प्रयत्न करते हैं। ये सभी बातें आस्तिक दर्शनों में भी हैं । अन्तर केवल यह है कि जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता और न ही वेदों को प्रमाण मानता है। उत्तरपुराण की रामकथा का अध्ययन करने से इस मत की पुष्टि हो जाती है। आचार्य गुणभद्र ने स्पष्ट रूप से वेद का विरोध किया है। वे कहते हैं, “वेद का निरूपण करने वाले परस्पर-विरुद्धभाषी हैं। यदि विरुद्धभाषी न होते तो उसमें एक जगह हिंसा का विधान और दूसरी जगह हिंसा का निषेध, दोनों प्रकार के वाक्य न मिलते।" वेद का विरोध करते हुए तथा जैन दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए वे कहते हैं कि यदि यह मान भी लिया जाए कि 'वेद स्वयम्भू है, अतः परस्पर-विरोधी होने पर भी इसमें दोष नहीं मानना चाहिए तो यह बात भी उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि यदि हम यह माने कि किसी भी बुद्धिमान मनुष्य के हलन-चलन रूपी व्यापार के बिना ही वेद रचे गए हैं, तो मेघों की गर्जना और मेंढकों की टर्र-टर्र आदि में भी स्वयम्भूत्व आ जाएगा, क्योंकि ये सब भी तो अपने आप ही उत्पन्न होते हैं।
इसीलिए आगम वही है, शास्त्र वही है, जो सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो तथा समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो और सब दोषों से रहित हो। इस प्रकार उत्तरपुराण में जैन दृष्टिकोण के अनुसार वेद-प्रामाण्य का स्पष्ट रूपेण विरोध किया गया है।
(ख) यज्ञानुष्ठान तथा उसमें होने वाली पशु-हिंसा का विरोध-वैदिक-कर्मकाण्डानुमोदित 'यज्ञ' का जैन धर्म में कोई स्थान नहीं है। जैनधर्मावलम्बी 'यज्ञानुष्ठान' आदि में विश्वास नहीं रखते। उत्तरपुराण में वर्णित रामकथा का अध्ययन करने से इस मत की पुष्टि हो जाती है। राजा जनक के माध्यम से आचार्य गुणभद्र यज्ञानुष्ठान पर व्यंग्य कसते हैं। राजा जनक का यह कथन, 'पहले राजा सगर, रानी सुलसा तथा घोड़ा आदि अन्य कितने ही जीव यज्ञ में होम किये गये थे। वे सब शरीर-सहित स्वर्ग गये थे, यह बात सुनी जाती है। यदि आज कल भी यज्ञ करने से स्वर्ग प्राप्त होता हो तो हम लोग भी यथायोग्य रीति से यज्ञ करें"--यज्ञानुष्ठान पर स्पष्ट प्रहार है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन धर्म में यज्ञ का कोई स्थान नहीं है। जैन मान्यतानुसार यज्ञ करना धर्म नहीं है क्योंकि यह प्रमाण-कोटि को प्राप्त नहीं है। राजा जनक के पूछने पर अतिशयमति नामक मन्त्री कहता है कि बुद्धिमान लोग यज्ञ-कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। जैन धर्म में यज्ञ का स्पष्ट विरोध किया गया है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार वचन की सिद्धि सप्रमाणता से होती है। जिनमें समस्त प्राणियों की हिंसा का निरूपण किया गया है, ऐसे यज्ञ-प्रवर्तक आगम के उपदेश करने वाले विरुद्धभाषी मनुष्य के उपदेश उसी प्रकार प्रामाणिक नहीं हो सकते, जिस प्रकार पागल मनुष्य के वचन प्रमाण नहीं हो सकते।"
जैन धर्म में यज्ञ के साथ-साथ पशु-हिंसा का भी विरोध किया गया है । जैन धर्मानुयायी 'यज्ञ' का अभिप्राय हिंसा' नहीं मानते। जैन परम्परानुसार 'यज्ञ' शब्द दान देना तथा देव और ऋषियों की पूजा करना आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि यदि 'यज्ञ' का अर्थ हिंसा करना मानें तो जो लोग यज्ञ नहीं करते, उनको नरक में जाना चाहिए और यदि ऐसा माने कि हिंसक व्यक्ति भी स्वर्ग जाता है तो फिर जो व्यक्ति हिंसा नहीं करता, उसे नरक में जाना चाहिए।"
व्याकरण की दृष्टि से 'यज्ञ' शब्द का अर्थ बतलाकर वे अपने मत की पुष्टि करते हैं । वे कहते हैं कि यदि 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'हिंसा'
१. डॉ. उमेश मिश्र : भारतीय दर्शन, पृ०६८ २. एच०सी० भयानी : रामायण-समीक्षा, श्री वेंकटेश्वर यूनिवर्सिटी, तिरुपति, १९६७, पृ०७६ ३. उ०पु०,६७१/८८ ४. उ०पु०, ६७/१६० ५. वही, ६७/१६१ ६. वही, ६७/१६१-६२ ७. 'स्वर्लोकः क्रियतेऽस्माभिरपि याज्ञो यथोचितम् ।' उ.पु०, ६७/१७२ ८. 'धर्मो यागोऽयमित्येतत्प्रमाणपदवीं वचः । न प्राप्तोत्पत एवान न वर्तन्ते मनीषिणः ।' उ०पु०, ६७/१८६ ६. उ०पु०, ६७/१८७ १०. वही, ६७/१८८ ११. वही, ६७/१६६
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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