________________
जैन राम - कथाओं में धर्म
राम-कथा-मन्दाकिनी में अवगाहन करके अनेक कवियों को पुण्याजित करने का शुभावसर प्राप्त हुआ है। बौद्ध एवं जैन मतानुयायी भी राम कथा के प्रबल पुण्यमय प्रवाह के सम्मुख तटस्थ न रह सके और उन्होंने नतमस्तक होकर इसके कथा-सीकरों से अपने काव्यों को अभिसिंचित किया । जैन साहित्य की राम कथा सम्बन्धी कृतियों में अनेक उपाख्यान मिलते हैं। इनमें प्राकृत कवि विमलसूरि का पउमचरिउ, संस्कृत जैन कवि रविषेण का पद्मपुराण, गुणभद्र का उत्तरपुराण, हेमचन्द्र का त्रिपष्ठिशलाकापुरुषचरित आदि प्रमुख रचनाएं हैं। इन काव्यों के राम कथा सम्बन्धी उपाख्यानों में से हिन्दू राम कथा के उन अंशों को निकाल दिया गया है या परिवर्तित कर दिया गया है जो जैन धर्म के सिद्धान्तों से मेल नहीं खाते ।
जैन राम कथा साहित्य कथाओं का अतुल भंडार है। जैन कथाकारों ने प्रायः धार्मिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए कथाओं का सुगम मार्ग ग्रहण किया। चाहे महाकाव्य हों या खण्डकाव्य, पुराण हों या चरितकाव्य, सर्वत्र पुष्प में परागकणों के समान इनकी छटा बिखरी हुई दृष्टिगत होती है। प्रायः दिगम्बर सम्प्रदाय के पुराण और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के चरित-ग्रन्थ दोनों प्रकार की रचनाओं में कथाबाहुल्य है । जैन आचार्यों एवं कवियों ने धार्मिक परम्पराओं, विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार के लिए तथा अपनी बात को जनता के हृदय तक पहुंचाने के लिए कथाओं का आश्रय लिया। इन कथाओं में सरसता, रोचकता, मनोरंजन, जिज्ञासा, विस्मय, कौतूहल आदि का सहज समावेश है ।
यद्यपि जैन साहित्य के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न युगों में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में कथाओं का निर्माण हुआ, परन्तु भाषा-वैविध्य और काल-भिन्नता के होने पर भी जैन कथा - साहित्य की प्रवृत्तियों अथवा धार्मिक विचारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । विचारों एवं प्रवृत्तियों में एकरूपता होने के कारण समग्र साहित्य मुख्यवस्थित, परम्पराबद्ध एवं सशक्त रूप में दृष्टिगत होता है।
डॉ० सुरेन्द्रकुमार शर्मा
जैन कथा - साहित्य का प्राण एकमात्र धर्म है। जैन कवि धर्म- - प्रवण समाज की रचना करना चाहते थे । अत: चाहे तो पुराण हों, चाहे चरित-काव्य या कथात्मक कृतियां हों, चाहे प्रेम कथा हों चाहे साहसिक कथा हो और चाहे सदाचार सम्बन्धी कथा हों, सर्वत्र धर्म तत्त्व अनुस्यूत मिलता है। धर्म की प्रधानता होते हुए भी पात्रों के चरित्र को अतिमानवीय रूप नहीं दिया गया है क्योंकि इन कवियों का जीवन और जगत् के प्रति स्वस्थ एवं संतुलित दृष्टिकोण रहा है। अतः जहां कथा साहित्य में परलोक के प्रति आकर्षण है वहां इहलोक के प्रति भी अनासक्ति नहीं है।
जैन कृतियों में कर्म सिद्धान्त या पुनर्जन्मवाद के प्रति अटूट आस्था प्रकट की गई है। ईश्वर या अदृष्ट शक्ति के स्थान पर पूर्वजन्म के कर्मों को महत्त्व दिया गया है। शुभ या अशुभ कर्मों के अनुरूप ही प्राणी नवीन शरीर का अधिकारी बनता है। जहां कहीं पात्रों के असाधारण कार्यों में अतिमानवीय पक्ष, विद्याधर आदि की सहायता) शक्ति की चर्चा की जाती है वहां भी वह शक्ति केवल निर्मित मात्र होती है, मुख्य कारण तो मनुष्य के संचित कर्म ही होते हैं। पुनर्जन्म की अवश्यम्भाविता और कर्मविपाक के सिद्धान्त की सुदृढ़ आधारशिला तैयार करने के लिए इन कथाकारों द्वारा इतिहास की भी उपेक्षा कर दी गई है। एक ही पात्र के उतार-चढ़ाव को प्रकट करने के लिए जन्मजन्मान्तरों की कथाओं का जाल-सा बिछा रहता है। कर्म-बन्धन एवं जन्म-मरण के आवागमन से मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती, जब तक सद्गति प्राप्त न हो जाए ।
इन कथा-काव्यों के नायक वीरता, श्रृंगार और वैराग्य इन तीन सोपानों को पार करते हुए अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचते हैं । यह इनके लिए अनिवार्य नियम-सा है । भोगासक्ति के गुरुत्वाकर्षण से हटकर विरक्ति की सीमा तक पहुंचने पर फिर लौट पाना असम्भव है। भोग और योग के मध्य तालमेल करने का प्रयास नहीं किया गया है। कहीं-कहीं नायक की विसंगतियों, अंतर्द्वन्द्वों अथवा कठिन परिस्थितियों को उभारने के लिए प्रतिनायक या प्रतिनायिका की कल्पना की जाती है। जैन कवियों ने मनुष्य जीवन के नैतिक स्तर को समुन्नत करने के लिए
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org