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मानें तो फिर धातुपाठ में जहां धातुओं के अर्थ बतलाए हैं, वहां यज् धातु का अर्थ हिंसा क्यों नहीं बतलाया गया ?' वहां तो मात्र 'यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषु यही कहा गया है इसीलिए यज्ञ का अर्थ हिंसा करना कभी नहीं हो सकता।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यदि यह माना जाए कि यज्ञ का अर्थ हिंसा नहीं है तो आर्य ! पुरुष प्राणिहिंसा से युक्त यज्ञ क्यों करते हैं ? यह वाक्य अशिक्षित तथा मूर्ख व्यक्ति का लक्षण है, क्योंकि यह आर्ष और अनार्ष के भेद से दो प्रकार का होता है।' जैन परम्परानुसार इस कर्मभूमि-रूपी जगत् के आदि में होने वाले परब्रह्म बीबृषभदेव तीर्थकर के द्वारा कहे हुए वेद में जीवादि छह द्रव्यों के भेद का यथार्थ उपदेश दिया गया है।
सतत विद्यमान रहने वाले तथा वस्तु सत्ता के लिए नितान्त आवश्यक धर्म को 'गुण' कहते हैं तथा देशकालजन्य परिणामशाली धर्म 'पर्याय' कहलाते हैं। गुण तथा पर्याय विशिष्ट वस्तु को जैन न्याय के अनुसार द्रव्य" कहा जाता है। जैन धर्म में कोधान्नि, कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियां बतलाई गई हैं। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियां देने वाले जो ऋषि, यति, मुनि और द्विज वन में निवास करते हैं, वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टमी पृथ्वी-मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
इसके अतिरिक्त तीर्थंकर गणधर तथा अन्य केवलियों के उत्तम शरीर के संस्कार से पूज्य एवं अग्निकुमार इन्द्र मुकुट से उत्पन्न हुई तीन अग्नियां हैं जिनमें अत्यन्त भक्त तथा दान आदि उत्तमोत्तम क्रियाओं को करने वाले तपस्वी गृहस्थ परमात्म-पद को प्राप्त हुए। अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देश्य कर ऋषि-प्रणीत वेद में कहे मंत्रों का उच्चारण करते हुए, जो अक्षत- गन्ध-फल आदि की आहुि दी जाती है, वह दूसरा 'आर्ष यज्ञ' कहलाता है । जो लोग निरन्तर यह यज्ञ करते हैं, वे इन्द्र के समान माननीय पदों पर अधिष्ठित होकर 'लोकान्तिक' नामक देवब्राह्मण होते हैं और अंत में समस्त पापों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार जैन परम्परा में यज्ञ का गृहस्थ और मुनि के आश्रय से दो प्रकार का निरूपण किया गया है। इनमें से पहला मोक्ष का साक्षात् कारण है और दूसरा परम्परा से मोक्ष का कारण है ।" इस प्रकार देवयज्ञ की यह विधि परम्परा से चली आई है, यही दोनों लोकों का हित करने वाली तथा निरन्तर विद्यमान रहने वाली है ।
उत्तरपुराण की रामकथा के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि कभी-कभी यज्ञों का दुरुपयोग भी किया जाता था। मुनि सुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में, सगर राजा से द्वेष करने वाले महाकाल नामक असुर ने यज्ञानुष्ठान का दुरुपयोग कर हिसा यज्ञ का उपदेश दिया था। उसने अपने क्रूर असुरों को राजा सगर के राज्य में तीव्र ज्वर आदि के द्वारा पीड़ा उत्पन्न करने को कहा। महाकाल के मित्र पर्वत ने राजा सगर से कहा कि मैं मंत्रसहित यज्ञों के द्वारा इस घोर अमंगल को शान्त कर सकता हूं। वह उसे हिंसात्मक यज्ञ करने के लिए प्रेरित करता हुआ कहता है कि विधाता ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए ही की है, अतः उनकी हिंसा से पाप नहीं होता, किन्तु स्वर्ग के विशाल सुख प्रदान करने वाले पुण्य ही होते हैं ।" इस प्रकार के वचनों द्वारा विश्वास दिलाकर, उसने राजा सगर से ६० हजार" पशु तथा यज्ञ-योग्य अन्य पदार्थों का संग्रह करने के लिए कहा। राजा सगर ने भी सब सामग्री उसे सौंप दी। इधर पर्वत ने भी यज्ञ आरम्भ कर प्राणियों को आमंत्रित कर मंत्रोच्चारणपूर्वक उन्हें यस कुण्ड में डालना प्रारम्भ किया। उधर महाकाल ने उन्हें विमानों पर बैठाकर स्वर्ग जाते : हुए दिखलाया । इसी बीच उन्होंने सगर के राजा के सब अमंगल भी दूर कर दिए। अंत में एक घोड़ा और रानी सुलसा को भी होम में आहुति रूप में डाल दिया गया, जिससे राजा सगर अत्यन्त दुःखी हुआ । उसने यतिवर मुनि से अपने द्वारा किए गए कार्य के विषय में पूछा । मुनि ने कहा कि यह कार्य धर्मशास्त्र से बहिष्कृत है ।" इससे आपको सातवें नरक की प्राप्ति होगी। नारद भी इस कार्य की
१. 'हिंसायामिति धात्वर्थपाठे किन विधीयते ।
न हिसा यज्ञशब्दार्थो यदि प्राणवधात्मकम् ॥' उ०पु०, ६७ / १२६
२. उ०पु०, ६७ /२००
३. वही, ६७ /२०१
४. 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । तत्त्वार्थ सूत्र, ५ / ३७
५. उ०पु०, ६७ / २०२-३
६. उ०पु०, ६७ / २०४-६
७.
वही, ६७ / २०७
८. वही. ६७/२१०
६. वही, ६७ / २१२
१०. वही, ६७ / ३५७
११. वही, ६७ / ३५८
१२. वही, ६७/३६७
जैन साहित्यानुशीलम
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