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भारत में बौद्ध और जैन दोनों ही सम्प्रदाय पूर्वप्रचलित रूढ़ मान्यताओं के प्रति क्रान्तिरूप में उद्भूत हुए। अपने दार्शनिक सिद्धांत तथा धार्मिक मान्यताओं के महत्व के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। इन दोनों ही सम्प्रदायों के विकास के युग में भी रामकथा सम्भवत: जन-सामान्य में अति प्रचलित एवं लोकप्रिय बन चुकी थी। यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर रामकथा को उन्होंने भी अपना लिया और अपने सिद्धान्तों के अनुरूप उसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। बौद्ध सम्प्रदाय में 'दशरथजातक' की रचना इसी दृष्टि से हुई । दशरथजातक से ज्ञात होता है कि पूर्वजन्म में राजा शुद्धोधन (राजा दशरथ), रानी महामाया (राम की माता), राहुल (माता सीता), बुद्धदेव (रामचन्द्र), उनके प्रधान शिष्य आनन्द (भरत) एवं सारिपुत्र (लक्ष्मण) थे।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि बौद्धों ने कई शताब्दियों पहले राम को बोधिसत्त्व मानकर रामकथा को अपने जातक-साहित्य में स्थान दिया था। आगे चलकर बौद्धों में रामकथा की लोकप्रियता घटने लगी। अर्वाचीन बौद्ध साहित्य में रामकथा का उल्लेख नहीं मिलता।
बौद्धों की अपेक्षा जैनानुयायियों ने बाद में रामकथा को अपनाया, लेकिन जैन साहित्य में इसकी लोकप्रियता शताब्दियों तक बनी रही, जिसके फलस्वरूप जैन कथा-ग्रन्थों में एक विस्तृत रामकथा-साहित्य पाया जाता है। इसमें राम, लक्ष्मण और रावण केवल जैन धर्मावलम्बी ही नहीं माने जाते प्रत्युत् उन्हें जैनियों के त्रिषष्टिशलाकापुरुषों में भी स्थान दिया गया है। इस प्रकार रामकथा भारतीय संस्कृति में इतने व्यापक रूप से फैल गई कि राम को उसके तीन प्रचलित धर्मों में एक निश्चित स्थान प्राप्त हुआ-ब्राह्मण धर्म में विष्णु के अवतार के रूप में, बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व के रूप में तथा जैनधर्म में आठवें बलदेव के रूप में ।
आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रामकथा के कलेवर में जैनधर्म के पौराणिक विश्वासों तथा दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना करने की सफल चेष्टा की है । अनेक ऐसे अवान्तर प्रसंगों के अवसर पर रामकथा को जैनानुमोदित रूप देने की पूर्ण चेष्टा की गई है। इस दृष्टि से रामकथा का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि रामकथा से सम्बद्ध तीनों प्रमुख पात्र राम, रावण और लक्ष्मण केवल जैन धर्मावलम्बी ही नहीं हैं अपितु त्रिषष्टिशलाकापुरुषों में भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। त्रिषष्टि महापुरुषों का वर्णन सर्वप्रथम महापुराण में मिलता है जिसमें कुल ७६ पर्व हैं। इसके दो भाग हैं आदिपुराण और उत्तरपुराण । १ से ४६ पौं तक की रचना जिनसेनाचार्य ने की थी तथा यह भाग आदिपुराण के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जबकि शेष पर्वो की रचना जिनसेन के शिष्य गुणभद्राचार्य द्वारा की गई और यह उत्तरपुराण के नाम से प्रचलित हुआ। और ये दोनों भाग 'महापुराण' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जैन देवशास्त्र
__जैन धर्म के अनुसार त्रिषष्टिशलाकापुरुष इस प्रकार हैं-२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रतिवासुदेव । प्रत्येक कल्प के त्रिषष्टिमहापुरुषों में से ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव होते हैं, ये तीनों सदैव समकालीन होते हैं। इनकी जीवनियां जैन धर्म में पुराणों के रूप में दी गई हैं। राम, लक्ष्मण और रावण क्रमश: आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव माने जाते हैं। जैन धर्म में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, भर्ता और संहर्ता नहीं माना गया है। इन्होंने ईश्वर को सर्वोच्च नहीं माना है। सिद्धि' और 'मुक्ति' को ही सर्वोच्च स्थान दिया है। यही कारण है कि अवतारवाद का जैन धर्म में कोई स्थान नहीं है। जैन राम एक आदर्श माने गए हैं। जैन परम्परा में सभी त्रिषष्टिमहापुरुष लक्ष्मी से युक्त अपार सम्पदा के स्वामी होते हैं। बलदेव चार रत्नों के स्वामी होते हैं। ये रत्न ही इनकी शक्तियां हैं । पृथक-पृथक यक्ष इनकी रक्षा करते हैं, इन्हीं शक्तियों के बल पर ही वे दुष्टों का संहार किया करते हैं।
राम तथा लक्ष्मण क्रमश: आठवें बलभद्र एवं पाठवें नारायण के रूप में
जैन धर्मानुसार राम को आठवां बलभद्र और लक्ष्मण को आठवाँ नारायण मानकर ही रामकथा का जैन रूपांतर किया गया है। राम और लक्ष्मण के केवल एक ही नहीं अपितु पूर्वभवों का भी वर्णन किया गया है। उत्तरपुराण के अनुसार राम का जीव पहले मलयदेश के मन्त्री के पुत्र चन्द्रचूल के मित्र विजय नाम से प्रसिद्ध था। फिर तीसरे स्वर्ग में दिव्य भोगों से लालित कनकचूल नामक प्रसिद्ध देव उत्पन्न हआ और फिर सूर्यवंश में अपरिमित बल को धारण करने वाला रामचन्द्र हुआ।
१. राजेन्द्रप्रसाद दीक्षित : उत्तरप्रदेश पत्रिका, पृ०११ २. डॉ० कामिल बुल्के : रामकथा, पृ० ६५ ३. वही. पृ०६५ ४. एम. विण्टरनित्ज : हि०ई०लिट्०, भाग १, पृ० ४६७ ५. 'बलानामष्टम राम लक्ष्मणं चार्धचक्रिणाम् ।' उत्तरपुराण, ६८/४६२ ६. वही, ६८/७३१
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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