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इस सम्पूर्ण उपयुक्त विवरण से उत्तम गायक के ग्राह्य गुणों की परिगणना के अनन्तर वर्ण्य-दोषों का भी विवरण आवश्यक है अतः सभी आचार्यों ने अपने मत इस विषय पर प्रस्तुत किये हैं । इन आचार्यों में गुणों की भांति दोषों की संख्या पर भी मतभिन्नता दष्टिगोचर होती है। एक ओर तो संगीतरत्नाकर की परम्परा वाले आचार्य दोषों की संख्या निम्न प्रकार से पच्चीस मानते हैं :
(१) संदष्ट, (२) उद्धृष्ट, (३) सूत्कारि, (४) भीत, (५) शङिकत, (६) कम्पित, (७) कराली, (८) विकल, (8) काकी, (१०) विताल, (११) करभ, (१२) उद्भट, (१३) झोम्बक, (१४) तुम्बकी, (१५) वक्री, (१६) प्रसारी, (१७) मिनिमीलक, (१८) विरस, (१६) अपस्वर, (२०) अव्यक्त, (२१) स्थानभ्रष्ट, (२२) अव्यवस्थित, (२३) मिश्रक, (२४) अनवधान, (२५) सानुनासिक ।
दूसरी ओर आचार्य पार्श्वदेव ने उपयुक्त में से,
(१) विकल, (२) करम, (३) तुम्बकी, (४) विरस, (५) अपस्वर, (६) अव्यक्त, तथा (७) स्थानभ्रष्ट-इन सात दोषों का नामांकन नहीं किया है, अन्य अठारह को भी यथावत् न मानते हए उनके विवरण में कहीं-कहीं अन्तर करते हुए उष्ट्रकी नामक एक नवीन दोष का उल्लेख किया है। संगीतरत्नाकरकार आदि ने जिस दोष को तम्बकी के नाम से माना है उसी विवरण वाले दोष को संगीतसमयसारकृत ने झोम्बक के नाम से स्वीकार किया है। संगीतरत्नाकरकार द्वारा स्वीकृत उभट नामक दोष को आचाय पार्श्वदेव ने उद्घङ नाम से विवृत किया है।
इस प्रकार आचार्य पार्श्वदेव ने दोषों की संख्या मात्र उन्नीस मानी है। सम्प्रति उपर्युक्त सर्वविध दोषों का विवरण
प्रस्तुत है
१. संदष्ट-दांत पीस कर गाने वाला, २. उद्धष्ट-नीरस उद्घोष करने वाला,
नोट :-संगीतरत्नाकर के "आड्यार संस्करण" में "विसरोद्घोषः" पाठ दिया गया है जो उचित प्रतीत नहीं होता । तुलना किये जाने पर "मद्रास सरकार ओरियण्टल सीरीज' से प्रकाशित संगीतदर्पणकार के द्वारा दिये गए विवरण से ज्ञात होता है कि वास्तव में "विरसोद्घोषः" पाठ समुचित है तथा प्रस्तुत प्रकरण में संगत भी है।
३. सत्कारि-गायन समय में सू-सू शब्द करने वाला, ४. भीत-भय युक्त होकर गाने वाला, ५. शंकित-बहुत शीघ्रता से गाने वाला, ६. कम्पित--स्वभावतः ही कण्ठ, मुख एवं शब्दों को कम्पन कराते हए गाने वाला । यहाँ विशेष बात जान लेनी चाहिये कि
कम्पन गमक को भी कहते हैं परन्तु यह सार्वत्रिक नहीं अपितु स्थानसापेक्ष होनी चाहिये । ७. कराली-विकराल रूप में मुख का उद्घाटन करके गायन करने वाला, ८. विकल-स्वर की निश्चित श्रुतियों से कम अथवा अधिक श्रुतियों को गाने वाला, ६. काकी-जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है-कौए के समान रूक्ष गायन करने वाला, १०. विताल-ताल से विच्युत हो जाने वाला=बेताल, ११. करभ--कन्धे तथा गर्दन ऊंची करके गाने वाला,
१. संगीतरत्नाकर, ३. २५-२७.
तुलनीय संगीतदर्पण, ३२७. २. संगीत समयसार, ६.७६ (पूर्वार्ध).
जैन प्राच्य विद्याएँ
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