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प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य द्वारा युद्धक्षेत्र की भयानकता कुशलतापूर्वक पूर्ण रूप से चित्रित की गई है।'
हरिवंशपुराण में श्रीकृष्ण को मारने के लिए अचानक प्रकट हुई ताण्डवी नामक राक्षसी का भयोत्पादक वर्णन बहुत कुशलता से, कवि जिनसेन ने किया है।'
इसी प्रकार एक प्रेत की भयानक आकृति का वर्णन शान्तिनाथचरित में भी प्राप्त होता है।
रावण के कठोर तप को देखकर, यक्षों द्वारा उस पर ढाई गई भयानक विपत्तियों का वर्णन रविषेणाचार्य ने पद्मपुराण में बखुबी किया है।
उत्तरपुराण में गुणभद्र ने राजा वसु के झूठ बोलने पर, चारों तरफ हाहाकार और भय उत्पन्न करने वाली प्राकृतिक दुर्घटनाओं एवं राजा पर आई हुई विपत्तियों और उसके सहित उसके सिंहासन का रसातल को चले जाने का वर्णन बहुत ही हृदयस्पर्शी व सुन्दर ढंग से किया है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में महापुरुषों द्वारा दिए गए उपदेश में जनसाधारण को अनुचित कार्य करने से रोकने के लिए, नरक की भयानकताओं व यातनाओं का वर्णन, कवियों द्वारा बहुत ही रोमञ्चकारी ढंग से दिया गया है। पद्मपुराण में नरक में दिए जाने वाली असंख्य यातनाओं का वर्णन कवि रविषेण द्वारा इतने विशद, स्पष्ट और प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है कि कोई स्वप्न में भी नरक में ले जाने वाले कार्यों को करने के लिए सोचेगा भी नहीं ।।
जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में भी इस प्रकार का नरक का भयोत्पादक वर्णन प्राप्त होता है।
महाकाव्यों में इस प्रकार के वर्णन बहुत कम प्राप्त होते हैं। तीर्थकर जब उपदेश के दौरान विभिन्न गतियों का वर्णन करते हैं तो उसमें प्रसंगवश नरक निवासियों का भी वर्णन संक्षेप से करते हैं। इसी कारण, प्रद्युम्नचरित, वसन्तविलास, जयन्तविजय और धर्माभ्युदय महाकाव्यों में चूंकि जैन दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया गया है । अत: इस प्रकार के वर्णन भी प्राप्त नहीं होते ।
धर्मशर्माभ्युदय में नरक-वर्णन संक्षिप्त होने पर भी प्रभावशाली है। एक ही अनुष्टुप् में पाययन्ति, घ्नन्ति, बध्नन्ति, मथ्नन्ति तथा दारयन्ति का प्रयोग दर्शनीय है।
सीता की अग्नि-परीक्षा के लिए प्रज्वलित प्रचण्ड अग्नि का वर्णन 'संदेहालंकार' के द्वारा रविषेणाचार्य ने इतने सुन्दर ढंग से किया है कि उसके पढ़ने मात्र से ही पाठक के दिल में भी भय का समावेश पूर्ण रूप से हो जाता है। कवि की कल्पनाएं भी नवीन हैं ।
हरिवंश पुराण में मद्य के नशे में जब यादव राजकुमार तपस्यालीन मुनि द्वैपायन को पीट देते हैं तो बदला लेने की इच्छा से मुनि किस तरह सारी द्वारका नगरी को उसके निवासियों सहित, क्रूरतापूर्वक अग्नि में भस्म कर देते हैं, इसका सजीव, यथार्थ व भयोत्पादक वर्णन कवि जिनसेन द्वारा अपने हरिवंशपुराण में दिया गया है।
त्रिषष्टि शलाका-पुरुषों में भयानक रस का वर्णन कहीं भी प्राप्त नहीं होता। इस रस की निष्पत्ति प्रायः भयोत्पादक वर्णनों में ही हुई है। किसी व्यक्ति विशेष में, व्यक्तिगत रूप में इस रस का वर्णन बहुत कम है। भाषा-शैली का प्रयोग भी इस रस के अनुरूप ही है।
१.शैलेन्द्राभैः पातितः कुञ्जरौधैर्दुःसञ्चार: स्यन्दनैश्चापि भग्नः ।
भल्लू कानां फेत्कृतैरन्त्र भूषवेतालस्तद्भीममासीन्नटद्भिः ।। प्रद्य म्नचरित, १०/१६ २. हरिवंशपुराण, ३५/६६ ३. शान्तिनाथचरित, १६/११७-१२० ४. पद्मपुराण, ७/२८९-३०८ ५. उत्तरपुराण, ६७/४२६-४३३ ६. विच्छिन्ननासिकाकर्णस्कन्धजंघादिविग्रहाः ।
कुम्भीपाके नियुज्यन्ते वांतशोणितवर्षिणः ।। प्रपीड्यन्ते च यन्त्रषु क्रूरारावेषु विह्वलाः । पुनः शैलेषु भिद्यन्ते तीक्ष्णेषु विरसस्वराः ।। पद्मपुराण, २६/८७-८८
और भी देखिए : पद्मपुराण, २६/६१-६३ ७. आदिपुराण, १०/३६-४७ ८. पाययन्ति च निस्त्रिशाः प्रतप्तकललं मुहुः ।
घ्नन्ति बध्नन्ति मनन्ति क्रकचैर्दारयन्ति च ॥ धर्मशर्माभ्युदय, २१/३० ६. पद्मपुराण, १०५/१७-२० १०. हरिवंशपुराण, ६१/७४-७६
जैन साहित्यानुशीलन
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