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जिनसेनाचार्य ने वृषभध्वज तीर्थकर के शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा गुणों पर अधिक महत्त्व दिया है।'
चित्र में चित्रित रुक्मिणी के सौन्दर्य को देखकर श्रीकृष्ण के विस्मय का वर्णन, महासेनाचार्य ने अपने प्रद्युम्नचरित में 'सन्देहालंकार' द्वारा किया है।
इसी प्रकार 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य में अपनी भावी पुत्रवधू को चित्र-लिखित देखकर राजा महासेन के आश्चर्य का चित्रण, कवि हरिश्चन्द्र ने 'घुणाक्षरन्याय' की कल्पना द्वारा किया है।'
पुनः स्वामी धर्मनाथ के सौन्दर्य को देखकर विदर्भ स्त्रियों में उनके चन्द्रमा कामदेव कृष्ण और कुबेर होने का सन्देह उत्पन्न होता है। लेकिन चूंकि ये सभी दोषयुक्त हैं और धर्मनाथ दोष-रहित हैं, अत: उनके प्रति इन सबके सन्देह का निवारण कर दिया गया है।' यद्यपि ये चारों क्रमशः पवित्रता, सौन्दर्य, पराक्रम और ऐश्वर्य के प्रतीक हैं, लेकिन कवि ने इनके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो इनके दोष को स्वयं ही सूचित करते हैं। यहां पर 'व्यतिरेकालंकार' वर्णन की शोभा को बढ़ा देता है।
वसन्तविलास महाकाव्य में वसन्तपाल मन्त्री का असाधारण सौन्दर्य वनदेवताओं में भी उसके इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा या कामदेव होने का भ्रम उत्पन्न कर देता है।
शान्तिनाथचरित में कनकधी को गुणवर्मा स्वयं 'ब्रह्मा' द्वारा 'घुणाक्षरन्याय' की भांति रचित रचना प्रतीत होता है।
उसी काव्य में इन्दुषेण और बिन्दुषेण 'श्रीकान्ता' की अतुलनीय सुन्दरता को देखकर उसे उर्वशी, पार्वती और लक्ष्मी समझ बैठते हैं।
कवि वीरनन्दि ने अपने चन्द्रप्रभचरित में राजा अजितसेन के सौन्दर्य के वर्णन में अपनी अद्भुत कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। 'उत्प्रेक्षालंकार' का प्रयोग अद्वितीय एवं मौलिक है।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि ने, कुबड़े होने पर भी राजा नल द्वारा एक भयंकर और मदमस्त हाथी को वश में करने के वर्णन में अद्भुत रस का संचार किया है।
केवल पद्मपुराण में ही कला-चातुरी के प्रसंग में अद्भुत रस दृष्टिगोचर होता है। शत्रुओं में भ्रम उत्पन्न करने के लिए कलाकारों ने राजा जनक और राजा दशरथ के पुतले इतनी कुशलता और सूक्ष्मता से बनाये कि वे और वास्तविक राजा सभी दृष्टियों से बिल्कुल एक-जैसे थे, सिवाय इसके कि एक सजीव थे तो दूसरे निर्जीव ।
भाषा की सुबोधता और प्रसंगानुकूल उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति और सन्देहालंकार का प्रयोग रस के सौन्दर्य को द्विगणित कर देता है।
शान्त रस
जैन दर्शन के अनुसार विषय-भोगों का भोग किए बिना कोई ‘रत्नत्रय' प्राप्त नहीं कर सकता। अत: अन्य रसों का भी जैन कवियों ने विस्तत चित्रण तो किया है लेकिन फिर भी ये काव्य शान्तरस-प्रधान ही हैं। पहले वणित रस मनुष्य-जीवन के पूर्वपक्ष को द्योतित करते हैं तो शान्तरस उत्तरपक्ष को।
१. हरिवंशपुराण, ६/१४८-५ २. सुरेन्द्ररामा किम किन्नरांगना किमिन्दुकान्ता प्रमदाथ भूभृताम् ।
नभःसदा स्त्री उत यक्षकन्यका धृतिः क्षमाश्रीरथ भारती रतिः ।। किमंगकीतिः किमु नागनायका जितान्यकांताजनिकांति बिभ्रती। वपुः कृता लेख्यपदं विकल्पिनो ममेति केयं वद तात सुन्दरी । प्रद्य म्नचरित, २/५१-५२ ३. धर्मशर्माभ्युदय, ६/३४-३५ ४. किमेण केतुः किमसावनंगः कृष्णोऽथवा कि किमसो कुबेरः । ___ लोकेऽथवामी विकलांगशोभा कोऽप्यन्य एवैष विशेषितश्रीः ।। धर्मशर्माभ्युदय, १७/१०१ ५. वसन्तविलास, १३/३८ ६. शान्तिनाथचरित, १६/५३-५६ ७. वही, २/६३-६६ ८. अन्योन्यसंहतकरांगुलिबाहुयुग्ममन्या निधाय निजमूर्धनि जम्भमाणा।
तद्दर्शनात्मविशतो हृदये स्मरस्य मांगल्यतोरणमिबोक्षिपती रराज । चन्द्रप्रभचरित, ७/८७ ६. धर्माभ्युदय, ११/४३१-४३३ १०. पद्मपुराण, २३/४१-४४
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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