________________
बीभत्स रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में बीभत्स रस प्रायः श्मशान भूमि के वर्णन और युद्धोपरान्त युद्धक्षेत्र के वर्णन में ही प्राप्त होता है। कहींकहीं किसी घृणास्पद आकृति के वर्णन में भी बीभत्स रस को चित्रित किया गया है।
पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने श्मशान भूमि का प्रभावशाली वर्णन किया है।' इसी प्रकार का वर्णन एक-दूसरे स्थल पर भी प्राप्त होता है।' वर्णन को पढ़ने मात्र से पाठक के मन में भी घृणा उत्पन्न हो जाती है ।
आदिपुराण में स्मशान भूमि के वर्णन के प्रसंग में आचार्य जिनसेन ने नाचते हुए कबन्धों, इधर-उधर घूमती हुए डाकिनियों, उल्लू, गीदड़ आदि अशुभ जीवों के चिल्लाने का भी वर्णन किया है।*
निःसन्देह अभयदेवसूरि ने अपने जयन्तविजय महाकाव्य में श्मशान भूमि में प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु का अत्यन्त प्रभावशाली वर्णन कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। लम्बे समासों व संयुक्त अक्षरों का प्रयोग बीभत्स रस के पूर्णतया अनुरूप है। यहां कवि ने गन्ध, चिल्लाहट व भूत-प्रेतों का वर्णन किया है जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों नाक, कान व चक्षु से है। इस प्रकार कवि ने एक व्यक्ति में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं को नूतन ढंग से ध्वनित किया है।
इसी प्रकार का विशद, स्पष्ट और सभी में घृणा उत्पन्न करने वाला श्मशान भूमि का वर्णन भावदेव सूरिकृत पार्श्वनाथचरित में दिया गया है। संयुक्त, श्रुतिकटु और महाप्राण अक्षरों का प्रयोग शब्दों द्वारा ही अर्थ का बोध करवाता है ।"
मल्लिनाथचरित में भी कवि विनयचन्द्र सूरि ने श्मशान भूमि का सरल भाषा में सुन्दर वर्णन किया है। युद्धोपरान्त युद्धभूमि का प्रभावशाली घृणोत्पादक वर्णन पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने सुन्दर ढंग से किया है। " द्विसंधान महाकाव्य में एक तरफ राम-लक्ष्मण और खरदूषण के और दूसरी तरफ भीम, अर्जुन और कौरव सेना के मध्य हुए भीषण युद्ध 'के उपरान्त युद्धक्षेत्र के बीभत्स दृश्य का कवि धनञ्जय ने रोमांचकारी वर्णन किया है। किस प्रकार राक्षसियां अपने बच्चों को पैरों पर लिटाकर, मृत योद्धाओं के खून और मांस का अवलेह बनाकर उनको खिला रही थीं, कवि की यह कल्पना नवीन है व वर्णन को और भी घृणास्पद बना देती है 15
इसी प्रसंग में कवि ने पुनः नवीन कल्पना करते हुए युद्धक्षेत्र का बीभत्स दृश्य पाठकों के नेत्रों के सम्मुख चित्रित कर दिया है ।
१. पद्मपुराण, २२ / ६७-७०
२. वही, १०६ / ६३-६५
३. आदिपुराण, ३४/१८१-८२ ४. मृतककोटिक कलेवर
माधव। चिकृत्कृमुकम्पद्धितम्] जम् अधिककपनातिदत्तः स्वतति ॥ भूत दिगन्तरदुः श्रवहुकृतै विकृतवेषवपुर्मुखनर्तनः ।
प्रचुर राक्षसभूत पिशाचकैर्भयकुलं रिव दुर्गपथं नृणाम् ॥ विसादिन्यदं विततकेशवस्त्रभूत् ।
भ्रमति यत्र ताण्डव डाकिनीकुलम कालमृतेरिव सादरम् ।। जयन्त विजय, ४/१-१२
५. भावदेवसूरिकृतपार्श्वनाथचरित, ३/३०४-७
६. मल्लिनाथचरित, १/३५७-४५६
७. विच्छिन्नाभुजाकांश्चित्कांश्चिदर्धोरुवजितान् ।
निःसृतान्त्रचयान् कांश्चित्कांश्चिद्दलितमस्तकान् ॥ गोमात्रावृतान् कश्चित् वर्गः कानपेि
रूदिता परिवर्गेण कांश्चिच्छादित विग्रहान् ॥ पद्मपुराण, ४७ / ४-५
८. निपीय रक्तं सुरपुष्पवासितं सितं कपालं परिपूयं सूनृताम् । नृतां प्रशंसन्त्यनयोनं नत्तं वाननतंबाचोर्युधि रक्षसां ततिः ।। प्रसार्य पादावधिरोप्य बालकं विधाय वक्रे ऽगुलिषंगमंगना ॥ प्रवेशयामास वसां महीक्षितां प्रकल्प्य पीथं पिशिताशिनां शनैः ॥ द्विसंधान, ६ / ३७-३८
३०
Jain Education International
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org