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जैन राम साहित्य का भारतवर्ष की विभिन्न भाषाओं में लिखे गए राम-काव्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। डॉ० जगदीश गुप्त ने 'गुजरात में राम की परम्परा तथा रामभक्ति का प्रचार' शीर्षक लेख में स्वीकार किया है कि "मध्यकाल से पूर्व गुजरात में जो भी महत्त्वपूर्ण राम-काव्य प्राप्त होते हैं, वे सभी जैन-विचारधारा से सम्बद्ध हैं और उनमें वर्णित रामकथा वाल्मीकि रामायण पर आधारित होते हुए भी अनेक अशों में उससे भिन्न है। इसी प्रकार श्री दिनेश चन्द्र सेन ने कलकत्ता से प्रकाशित 'बंगला रामायण' में जैन रामायणकारों का बंगाल के राम काव्य पर विशिष्ट प्रभाव का उल्लेख किया है।
स्वतन्त्र भारत में जैन राम काव्य के विविध पक्षों पर पर्याप्त शोध कार्य हुआ है। विद्वान् अब यह अनुभव करने लगे हैं कि जैन साहित्य में रत्नों का भण्डार भरा पड़ा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन साहित्यकारों और उनकी कृतियों के प्रति धार्मिक एवं साम्प्रदायिक साहित्य कहकर उपेक्षा करने वाले सुधी समालोचकों के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया है। प्रथमानुयोग से सम्बन्धित जैन राम काव्य की विशेषता एवं गुणवत्ता को दृष्टिगत करते हुए हिन्दी के मूर्धन्य समालोचक डॉ० नगेन्द्र ने 'जैनाचार्य कृत-पद्मपुराण और तुलसी-कृत रामचरित मानस' ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा है-"जैनकाव्य के पुनर्मूल्यांकन में अब साम्प्रदायिक दृष्टि अवरोध उपस्थित नहीं करती। उसके प्रति विद्वानों का दृष्टिकोण मात्र साम्प्रदायिक न रहकर गहन अनुसन्धान और जिज्ञासा का बनता जा रहा है। xxxxजैन-परम्परा के अनुसार रामायण के पात्रों का जो स्वरूप सम्मुख आता है वह आस्था एवं परंपरा में पोषित विचारकों को किञ्चित् भिन्न एवं अग्राह्य भी प्रतीत हो सकता है-किन्तु संशय की भावभूमि में पल्लवित आधुनिक मनीषा को वह कुछ अधिक आकृष्ट करता है । प्रति पात्रों में नायकीय महद् गुणों की परिकल्पना तथा उपेक्षित पात्रों के प्रति सहानुभूति, जो आधुनिकता का गुण कहा जा सकता है, जैन रामकाव्य परंपरा में इन दोनों तत्त्वों का स्पष्ट आभास मिलता है।"
__जैन साधुचर्या में पदयात्रा का विशेष विधान है। पदयात्राओं के माध्यम से जैन साधु लोक संस्कृति से परिचय प्राप्त कर लेता है। देशाटन के द्वारा साधु को देश-देशान्तरों की भाषा को समझने का अवसर मिलता है। जैन साधु परंपरा से श्रावकों के कल्याण के निमित्त उपदेश देते आए हैं। उनके उपदेशों में कथा साहित्य एवं लोकगीतों का अद्भुत सम्मिश्रण है। सुप्रसिद्ध कथाकार द्वय-संघदास गणि और धर्मदास गणि की धर्मकथा "वसुदेव हिण्डी' के १०० लम्भक में २८००० श्लोक प्रमाण सामग्री है। इस कथा ग्रन्थ में कृष्ण के पिता वसुदेव की १०० वर्ष तक कठिन भ्रमण यात्रा और १०० रानियों से विवाह का उल्लेख मिलता है। जैन कथा साहित्य का उद्देश्य धार्मिक है और इसीलिए कथाकारों ने जैन धर्म शास्त्र में निहित कर्मवाद, संयम, व्रत, उपवास, दान, पर्व, तीर्थ आदि के माहात्म्य का गुणगान करने के लिए अगणित कहानियों की कल्पना की है। जैन कहानियों का कथानक भी वैविध्यपूर्ण है जिसमें नीतिकथा, पशुपक्षी कथा, परीकथा, लोककथा, धर्मकथा, पुरातन कथा, दृष्टान्त कथा आदि विभिन्न विषयों का समावेश है।
कथा साहित्य की भांति लोक अनुग्रह की भावना से जैनाचार्यों ने रास साहित्य एवं लोकगीतों के स्वरूप को निर्धारित करने में भी महत्त्वपूर्ण योग दिया है। डॉ० दशरथ ओझा ने 'पुरानी हिन्दी में रास साहित्य' शीर्षक लेख में जैन मुनियों के अवदान की चर्चा करते हुए लिखा है
"जन-भाषा में रचना करने वाले जैन मुनि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के परम विद्वान् होते हुए भी चरित्राकांक्षी बाल, स्त्री, मूढ़ और मूों पर अनुग्रह करके जन-भाषा में रचना करते थे। रास ग्रन्थ उन्हीं जन-कृपालु सर्वहिताकांक्षी मुनियों और कवियों के प्रयास का परिणाम है । अतः इसकी भाषा जन-भाषा थी जिसका स्वरूप अपभ्रंश, पश्चिमी राजस्थानी एवं ब्रज भाषा के सम्मिश्रण से निर्मित हुआ था।"
जैन धर्म की श्रावक संहिता में चार प्रकार के दान का उल्लेख है-आहार, अभय, औषध और शास्त्र । शास्त्रदान से जिनवाणी के प्रचार-प्रसार को बल मिलता है। आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व तैलप नरेश के महादण्डनायक नागदेव की धर्मपत्नी अतिमब्बे की जिनेन्द्र भक्ति एवं शास्त्रदान की प्रवृत्ति को इस सन्दर्भ में एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस धर्मपरायण नारी की उपमा एक कवि ने गंगा और बर्फ-सी सफेद रुई से की है। धवलकीति से युक्त इस महिला ने जिन शासन की वृद्धि के लिए स्वर्ण, हीरे तथा माणिक्यों की १५०० प्रतिमाएं बनवाकर विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई, दानशालाएं खुलवाईं तथा कन्नड महाकवि पोन्न के शान्तिपुराण की एक हजार प्रतिलिपियां कराकर विविध शास्त्र भंडारों में वितरित कराई। शास्त्र दान की यह गौरवशाली परम्परा जैन समाज में लोकप्रिय रही है। इसी कारण भारतवर्ष के जैन मन्दिरों में आज भी प्राचीन हस्तलिखित धर्म ग्रन्थ बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं।
जैन समाज को परंपरा से प्राप्त इन समृद्ध शास्त्र भंडारों के लिए अपने पूर्वजों का ऋणी होना चाहिए। किन्तु देखने में यह आता है कि वर्तमान जैन समाज अपनी साहित्यिक सम्पदा की समुचित सुरक्षा के प्रति उदासीन है। विगत दो शताब्दियों में समुचित रख-रखाव की
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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