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किया गया है।"
युद्ध के पश्चात् युद्ध-क्षेत्र के दृश्य का वर्णन चन्द्रप्रभचरित में कवि बहुत ही आकर्षक और सजीव ढंग से करता है । " एक सुन्दर रूपक के प्रयोग से कवि उदयप्रभसूरि का युद्ध क्षेत्र वर्णन बहुत ही नवीन व प्रभावशाली बन गया है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में वीर रस के प्रसंग में अस्त्र और शस्त्र दोनों का ही उल्लेख मिलता है। युद्ध : में प्रायः धनुषबाण और तलवार का ही प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी दण्ड, चक्र, गदा, कृपाण, तोमर, मुद्गर, खड्ग व तुण्ड का निर्देश भी मिलता है। केवल हाथी और घोड़ों का ही युद्ध क्षेत्र में प्रयोग किये जाने का उल्लेख अनेकशः मिलता है ।
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धर्मवीर
इन काव्यों में श्रेष्ठ लोग अपने प्राणों को देकर भी अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने में विश्वास करते थे ।
सीता का पतिव्रत धर्म सर्वविदित ही है । पद्मपुराण में जब रावण साम और दान द्वारा भी सीता का मन राम से विमुख नहीं कर पाता तो वह 'दण्ड' का आश्रय लेता है। विभिन्न कष्टप्रद और असहनीय यातनाओं को भी सीता हँसते-हँसते सह जाती है, लेकिन अपने पति राम के अतिरिक्त किसी भी अन्य पुरुष के विषय में सोचना भी पाप समझती है। *
इसी प्रकार गुणभद्राचार्य ने भी सीता का अपने पतिव्रत में दृढ़ विश्वास का वर्णन इतनी सुन्दरता से किया है कि रावण की बहिन शूर्पणखा भी सीता का उत्तर सुनकर आश्चर्य चकित हो जाती है। जब विद्याधरी उसको बार-बार रावण से विवाह के लिए अनेकों लालच भी देती है, डराती-धमकाती भी है और अनेक यातनाएं भी देती है, तो सीता न तो बोलने और न ही अन्न-जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा कर लेती है।
महान लोग अपने कुल के यश की रक्षा के लिए अपने प्रिय व्यक्ति या वस्तु का त्याग करने में भी नहीं हिचकिचाते । यद्यपि राम का सीता के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास है, लेकिन फिर भी रावण के यहां रहने के कारण, चूंकि कुछ लोगों ने उसकी पवित्रता की तरफ उंगली उठाना प्रारम्भ कर दिया, अतः राम ने अपने कुल मर्यादा की रक्षा के लिए उसे जंगलों में निष्कासित कर दिया।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में किसी विशेष सिद्धि को प्राप्त करने के लिए, अपराजिता देवी को प्रसन्न करने के लिए, एक योगी, अनंगवती नामक राजकुमारी की जब बलि देना चाहता है, तो राजा अभयंकर अचानक वहां पहुंच जाता है और उस अजनबी राजकुमारी को योगी के चंगुल से छुड़ाने के लिए, वह स्वयं को समर्पित कर देता है। जैसे ही वह अपना सिर स्वयं काटने के लिए तत्पर होता है, उसके हाथ निश्चेष्ट हो जाते हैं। देवी प्रसन्न हो उसे एक वरदान मांगने को कहती है । इस पर राजा जो उत्तर देता है, वह वास्तव में अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने का नवीन, अनूठा और अद्वितीय उदाहरण है, जो अन्यत्र किसी भी साहित्य में दुर्लभ है।
कहीं-कहीं निम्न कोटि के पात्रों में भी धर्मवीर प्राप्त होता है। उत्तरपुराण में एक किरात मांस न खाने की प्रतिज्ञा भंग करने की अपेक्षा अपने प्राणों का त्याग करना ज्यादा अच्छा समझता है ।
दानवीर
इन महाकाव्यों में इस प्रकार का वीर रस दो प्रसंगों में प्राप्त होता है । एक तो कवियों द्वारा दिए गए राजाओं के दान देने के
१. वसन्त विलास महाकाव्य, ५/१७
२. क्वचित्पतितपत्त्यश्वं क्वचिद्भग्नमहारथम् ।
क्वचिदभिन्नेभमासीत्तदुःसंचारं रणाजिरम् ॥ चन्द्रप्रभचरित, १५ / ६०
३. भुजाभृतां भुजादण्डः शिरोभिश्च क्षितिच्युतैः ।
कृतान्त किंकराश्च दण्डकन्दुककौतुकम् ॥ धर्माभ्युदय, ४ / २९४
४. पद्मपुराण, ४६ / ६४-१०१
५. उत्तरपुराण, ६८ / १७५-१७८
६. उत्तरपुराण, ६८ / २१६-२२४
७. पद्मपुराण, १७/१८-२१
८. यदि भग्नप्रतिज्ञोऽपि जीवलोकेऽन जीवति ।
वद तद्देवि ! को नाम मृत इत्यभिधीयताम् ।।
ततस्त्वं यदि तुष्टाऽसि तत्प्रयाहि यथाऽऽगतम् ।
शिरश्छेदाक्षमोप्येष विशाम्यग्नौ यथा स्वयम् ॥ धर्माभ्युदय, १/२७६-२७७ - ६. उत्तरपुराण, ७४ / ३९७-४००
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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