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जैन साहित्यानुशीलन
सम्पादकीय
भगवान् श्री जिनेन्द्र देव के मुखारविन्द से निःसृत और गणधर के द्वारा स्मृति के माध्यम से निबद्ध जिनवाणी को ही श्रुत कहते हैं। जैनधर्म की सैद्धान्तिक मान्यताओं में श्रुत-पूजन को प्रकारान्तर से श्री जिनेन्द्रदेव के पूजन के समान माना गया है। जैन मन्दिरों के दैनिक पूजाविधान के अन्तर्गत श्रुत साहित्य की भावपूर्वक वन्दना की जाती है। श्रुत साहित्य की प्राचीन परम्परा और उसके विराट रूप का बोध जैन श्रावकों द्वारा श्री मन्दिर जी में पूजा के समय प्रयुक्त निम्नलिखित स्तुतिपरक गाथा से लगाया जा सकता है
पयाणि सुबारह कोडि सयेण । सुलक्ख तिरासिय जुत्ति-भरेण ।। सहस अट्ठावण पंच वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ।। इक्कावण कोडिउ लक्ख अठेव । सहस चुलसीदिय सा छक्केव ।।
सढाइगवीसह गन्थ-पपाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ।। अर्थात् द्वादशांग वाणी में एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच पद हैं, जिसके एक-एक पद में इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस ग्रन्थपद (३२ अक्षरप्रमाण अनुष्टुप श्लोक) हैं-मैं उस जिनवाणी को सदा नमस्कार करता हूँ। कालप्रवाह में अधिकांश आगम-साहित्य विच्छिन्न अथवा लुप्त हो गया। मनुष्य की बुद्धि के क्रमिक ह्रास का अनुभव करते हुए आचार्यप्रवर धरसेन स्वामी (ई० ३८-१०६) ने श्रुतज्ञान की कंठगत परम्परा को लिपिबद्ध कराने का निर्णय किया और अपने विश्वासपात्र शिष्य मुनि द्वय श्री पुष्पदन्त (ई०६६-१०६) और भूतबली (ई०६६-१५६) को गुरु-परम्परा से प्राप्त एकदेश अंग के ज्ञान में पारंगत किया और तदनन्तर उन्हें परम्परा से प्राप्त श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने का आदेश देकर आगम साहित्य की लेखन परम्परा का शुभारम्भ कराया। प्रस्तुत लेख में विशाल जैन वाङमय के प्रथमानुयोग से सम्बन्धित साहित्य के कतिपय पक्षों पर संक्षेप में विचार-विमर्श किया जायेगा।
श्रमण संस्कृति लोककल्याणमयी रही है। इसीलिए परमकारुणिक भगवान् महावीर ने अपनी धर्मदेशना के लिए जनसाधारण की भाषा अर्धमागधी का चयन किया। उनके द्वारा प्रणीत धर्म को जन-मानस में लोकप्रिय बनाने के लिए प्रारम्भिक जैन सन्तों ने लोकभाषा प्राकृत को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। इसीलिए प्राचीन जैन साहित्य की अधिकांश रचनाएं प्राकृत भाषा में उपलब्ध होती हैं । भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास की दृष्टि से प्राकृत साहित्य के महत्त्व पर अपने सारगर्भित विचारों को अभिव्यक्त करते हुए भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रप्रसाद ने २३ अप्रैल १९५६ को वैशाली में 'प्राकृत अनुसन्धानशाला' के शिलान्यास के अवसर पर राष्ट्र के विद्वानों का मार्गदर्शन करते हुए कहा था
"प्राकृत साहित्य के महत्त्व और उसकी विशालता के संबंध में दो शब्द कह देना आवश्यक जान पड़ता है। जहां पालि साहित्य की परम्परा अधिक से अधिक सात शताब्दियों तक चली, वहां प्राकृत की परम्परा की अवधि करीब पन्द्रह शताब्दियों तक चलती रही । भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इंडो-आर्यन परिवार की भारतीय भाषाओं का पालि की अपेक्षा प्राकृत से कहीं अधिक निकट का संबंध है । वास्तव में इस देश की आधुनिक भाषाएं पूर्व मध्य युग में प्रचलित विभिन्न प्राकृतों तथा अपभ्रश की ही उत्तराधिकारिणी हैं। हिन्दी, बंगला, मराठी आदि किसी भी भाषा को लीजिए, उसका विकास किसी न किसी प्राकृत से ही हुआ है । विकास काल में कुछ ऐसे ग्रन्थों की रचना भी हुई जिनका वर्गीकरण निहायत कठिन है, अर्थात् जिनके संबंध में सहसा यह कह देना कि उनकी भाषा प्राकृत है अथवा किसी आधुनिक भाषा का पुराना रूप, आसान काम नहीं। इस दृष्टि से देखा जाय तो आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति और पूर्ण विकास समझने के लिये प्राकृत साहित्य का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। अपनी परम्परा के अनुसार जैन आचार्य एक स्थान में तीन-चार महीनों से अधिक नहीं ठहरते थे और बराबर भ्रमण करते रहते थे। उन्होंने जो उपदेश दिये और जिन ग्रन्थों की रचना की वे देश भर में बिखरे पड़े हैं । सौभाग्य से उनमें से अधिकांश हस्तलिखित आलेखों के रूप में भंडारों में आज भी सुरक्षित हैं। ये ग्रन्थ सौराष्ट्र-गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और उत्तर तथा पूर्व में अनेक स्थानों में पाए गये हैं। इन सबको एकत्र करना और आवश्यक अनुसन्धान के बाद आधुनिक ढंग से उनके प्रकाशन की
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