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पूज्यपाद देवनन्दी के अनुसार 'पत्नी' शब्द निपातन से सिद्ध है।' पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि एवं चन्द्रगोमी के समान किसी अर्थ विशेष में पत्नी शब्द की व्युत्पत्ति की ओर निर्देश नहीं किया है । अभयनन्दी ने इसी सूत्र की वृत्ति में पत्नी को पुरुष की वित्तस्वामिनी कहकर व्याख्या की है। कारक सूत्र
ज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय तथा चतुर्थ पादों में कारक संबंधी नियमों का प्रतिपादन के "कारक" शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अष्टाध्यायी में कारक के प्रसंग में अधिकार सूत्र के अन्तर्गत उपलब्ध होता है। पाणिनि का
करने का पज्यपाद देवनन्दी ने भी कारक शब्द को जैनेन्द्र-व्याकरण में अधिकार सूत्र में ही स्थान दिया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने कर्ता, करण एव अधिकरण कारकों की परिभाषाएँ अष्टाध्यायी में दी गई परिभाषाओं के समान ही दी हैं।'
जैनेन्द्र-व्याकरण में सम्प्रदान एवं अपादान' कारकों की परिभाषाओं का क्षेत्र अष्टाध्यायी की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। इन
परिभाषाओं के द्वारा पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी में विद्यमान् चतुर्थी एव पंचमी" विभक्ति का भिन्न अर्थों में विधान करने वाले अनेक सूत्रों का ग्रहण किया है।
अष्टाध्यायी में अपादान कारक की परिभाषा 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' (अष्टा० १/४/२४) है। पूज्यपाद देवनन्दी ने अपादान सम्बद्ध सत्र के अर्थ को विस्तृत रूप देने की दृष्टि से 'धी' शब्द का भी सूत्र में ग्रहण किया है। जिसके परिणामस्वरूप कायिक
साथ-साथ बद्धिपूर्वक विश्लेष में भी जो ध्रुव हो उसको अपादान संज्ञा की है । अभयनन्दी ने उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या में सूत्र के अथ को और भी स्पष्ट कर दिया है।" इस प्रकार सूत्र में 'धी' शब्द को स्थान देकर पूज्यपाद देवनन्दी ने कात्यायन के वात्तिक 'जगुप्सा विराम
नामपसंख्यानम' (अष्टा० १/४/२४ वा०) का ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार 'धी' शब्द के ग्रहण मात्र से ही सूत्र के आकार में जीत का निवारण करने हुए अपादान कारक की परिभाषा को अर्थ की दृष्टि से विस्तृत रूप दिया है।
नब्बाध्य आसम्' (जै० व्या० १/२/११) सूत्र को दृष्टि में रखते हुए पूज्यपाद देवनन्दी ने अपादान" एवं कर्म" शब्दों का नपुंसकलिंग में प्रयोग किया है।
१. पत्नी, जै० न्या० ३/१/३३. २. पस्य पुस: वित्तस्य स्वामिनीत्यर्थः, जै० म० वृ० ३/१/३३. ३. जै० व्या० १/२/१०६-१२५. ४. वही, १/४/१-७७. ५. कारके, मष्टा० १/४/२३. ६. कारके, जै० व्या० १/२/१०९. ७. तु०-जै० व्या० १/२/१२५, मष्टा० १/४/५४. . वही, १/२/११४ वही १/४/४२.
वही, १/२/११६, बही, १/४/४५. ८. कर्मणोपेयः सम्प्रदानम्, जै० ब्या० १-२-१११. ६. ध्यपाये ध्रुवमपादानम्, वही, १/२/११०. १०. द्र०-भ्रष्टा० १/४/३२-३४, ३६, ३७, ३६-४१. ११. द्र०-वही १/४/२८-३१.
धीब द्धिः। प्राप्तिपूर्वको विश्ल षोऽपायः । धिया कृतो अपायो ध्यपाय:। धीप्राप्तिपूर्वको विभाग इत्यर्थः। धीग्रहणे हसति कायप्राप्तिपूर्वक एवापाय:
प्रतीयेत धीग्रहणेन सर्व: प्रतीयते । जै० म० वृ० १/२/११०. १३. ध्यपाये ध्रवमपादानम्, जै० व्या० १/२/११०. १४. दिवः कर्म, वही, १/२/११५.
जैन प्राच्य विद्याएं
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