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(आ) चिकित्साधिकार के अंतर्गत परिच्छेद
७. व्याधिसमुद्देश, ८. वातरोगचिकित्सित, ६. पित्तरोगचिकित्सित, १०. श्लेष्मव्याधिचिकित्सित, ११. महामयचिकित्सित, (प्रमेह, कुष्ठ, उदर), १२ महामयचिकित्सित (वातव्याधि, मूढगर्भ, अर्श), १३. महामयचिकित्सित (अश्मरी, भगंदर) तथा क्षुद्ररोगचिकित्सित (वृद्धि) १४. क्षुद्ररोगचिकित्सित (उपदंश, शूकदोष, श्लीपद, अपची, गलगंड, नाडीव्रण, अबुर्द, ग्रन्थि, विद्रधि, क्षुद्ररोग) १५ क्षुद्ररोग चिकित्सित (शिरोरोग, कर्णरोग, नासारोग, मुखरोग, नेत्ररोग), १६ क्षुद्ररोग चिकित्सित (श्वास, कास, विरस, तृष्णा, छदि, अरोचक, स्वर भेद, उदावर्त, हिक्का, प्रतिश्याय), १७ क्षुद्ररोगचिकित्सित (हृद्रोग, क्रिमिरोग, अजीर्णरोग, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्र, योनिरोग, गुल्म, पाण्डुरोग, कामला, मूर्छा, उन्माद, अपस्मार), १८ क्षुद्ररोगचिकित्सित (राजयक्ष्मा, मसूरिका, बालग्रह, भूततंत्र), १६ सर्वविष चिकित्सित, २० शास्त्रसंग्रहतंत्रयुक्ति ।
(इ) इसके बाद 'उत्तरतंत्र' प्रारम्भ होता है। इसके अंतर्गत परिच्छेद २१ कर्मचिकित्साधिकार (चतुर्विधकर्म-चिकित्सा-क्षार, अग्नि, शस्त्र, औषध ; जलौका, शिराव्यध) २२. भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार (स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, बस्ति-अनुवासन-निरूह, के असम्यक् प्रयोग से होने वाली आपत्तियों के भेद व प्रतीकार), २३ सवौं षिधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकार (उत्तरबस्ति, वीर्यरोग, शुद्धशुक्र, शुद्धातव, गर्भादानविधि, भिणीचर्या, प्रसव, सूतिकोपचार, धूम, कवलग्रह, नस्यविधि, व्रणशोथ-शोथ, पूतिनाशक लेप, केशकृष्णीकरण योग) २४ रसरसायन सिध्यधिकार (रस, रससंस्कार, मूर्छन, मारण, बंधन, रसशाला, रसनिर्माण, रसप्रयोग), २५ कल्पाधिकार (हरीतकी, आमलक, त्रिफला, शिलाजतु, वाम्येषा ? कल्प, पाषाणभेदकल्प, भल्लातपाषाणकल्प, खर्परीकल्प, वज्रकल्प, मृत्तिकाकल्प, गोशृग्यादिकल्प, एरंडादिकल्प, नाग्यादिकल्प, क्षारकल्प, चित्रककल्प, त्रिफलादिकल्प) ।
अंतिम दो परिशिष्टाध्यायों में प्रथम 'रिष्टाध्याय' में मरणसूचक लक्षणों व चिह्नों का निरूपण किया गया है। द्वितीय, 'हिताहितोध्याय' में मांसभक्षण निषेध का युक्तियुक्त विवेचन है। इस अध्याय में स्वयं आचार्य उग्रादित्य की संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। ग्रंथ का उद्देश्य
उग्रादित्याचार्य ने लिखा है-"स्वयं के यश के लिए या विनोद के लिए या कवित्व के गर्व के लिए या हमारे पर लोगों की अभिरुचि जागृत करने के लिए मैंने इस ग्रंथ की रचना नहीं की है; अपितु यह समस्त कर्मों का नाश करने वाला जैनसिद्धांत है, ऐसा स्मरण करते हुए इसकी रचना की है।"
“जो विद्वान् मुनि आरोग्यशास्त्र को भलीभाँति जानकर उसके अनुसार आहार-विहार करते हुए स्वास्थ्य-रक्षा करते हैं वह सिद्धसख को प्राप्त करता है । इसके विपरीत जो आरोग्य की रक्षा न करते हुए अपने दोषों से उत्पन्न रोगों, शरीर को पीड़ा पहुंचाते हुए, अपने अनेक प्रकार के दुष्परिणामों के भेद से कर्म से बंध जाता है।"
"बुद्धिमान व्यक्ति दृढ़ मन वाला होने पर भी यदि रोगी हो, वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है और न मोक्षसाधन कर सकता है । इन पुरुषार्थों की प्राप्ति न होने से वह मनुष्य कहलाने योग्य ही नहीं रह जाता ।"
__ “इस प्रकार उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत यह शास्त्र कर्मों के मर्मभेदन करने के लिए शस्त्र के समान है। सब कामों में निपुण लोग इसे जानकर (अर्थात् इस शास्त्र में प्रवीण होकर) और इसके अनुसार आचरण-आरोग्यसम्पादन कर धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करते हैं।'
१.
(अ)
क. का, प. २०, श्लोक ८८. न चात्मयशसे विनोदननिमित्ततो वापि सत्कषित्वनिजगवंतो न च जनानुरागाशयात् । वतं प्रथितशास्त्रमेतदरुजैनसिद्धान्तमित्यहनिशमनुस्मराम्यखिलकमंनिमूलनम् ।। प्रारोग्यशास्त्रमधिगम्य मनिविपश्चित स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखकहेतुम् । अन्यस्स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो बध्नाति कर्म निजदष्परिणामभेदात् ।।६।। न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य हर्ता न कामस्य भोक्ता न मोक्षम्य पाता। नरो वद्धिमान धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशद भवन्नव मर्त्यः ।।६।। इत्यमादित्याचार्यवयंप्रणीतं शास्त्र शस्त्र कर्मणां मर्मभेदी। ज्ञात्वा मत्स्स कंकर्मप्रवीण लभ्यतै के धर्मकामार्थमोक्षा: ॥१॥ क. का. १-११-१२
(प्रा)
जैन प्राच्य विद्याएँ
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