________________
विषरोग — अगद तंत्र संबंधी विषय दिये गये हैं। मद्य को विष वर्ग में ही माना गया है। अंतिम बीसवें परिच्छेद में सप्तधात्पत्ति, रोगकारण और अधिष्ठान, साठ प्रकार के उपक्रम व चतुविधकर्म भोजन के बारह भेद, दश औषधकाल, स्नेहपाकादि की विधि, रिष्ट वर्णन, और ममवर्णन है।
उत्तरतंत्र में क्षारकर्म, अग्निकर्म, जलौकावचारण, शस्त्र कर्म, शिराव्यध, स्नेहनादि कर्मों के यथावत् न करने से उत्पन्न आपत्तियों की चिकित्सा, उत्तरबस्ति, गर्भाधान, प्रसव, सूतिकोपचार, धूम्रपान, कवल-गंडूष, नस्य, शोध-वर्णन, पलित-नाशन, केशकृष्णीकरण उपाय रसविधि विविध कल्पप्रयोग हैं। अंत में दो परिशिष्टाध्याय हैं।
दक्षिण भारत के अन्य जैन- आयुर्वेद ग्रंथ
अष्टांग आयुर्वेद के प्रतिपादक और 'प्राणावाय' परम्परा के मुख्य उपलब्ध मौलिक ग्रन्थ 'कल्याणकारक' पर विस्तार से विवेचन देने के पश्चात् यहां दक्षिण भारत में लिखित दिगंबर आचार्यों के अन्य वैद्यक-ग्रन्थों का उल्लेख किया जाता है ।
3
समंतभद्र - ( ३-४ शताब्दी) कर्नाटक में इनका लिखा हुआ 'पुष्प आयुर्वेद' नामक ग्रन्थ मिलता है, वह संदिग्ध है। उग्रादित्य इनके अष्टांग संबंधी विस्तृत ग्रन्थ का उल्लेख किया है ।
पूज्यपाद - ( ५वीं शताब्दी ) - इनका प्रारम्भिक नाम देवनंदि था। बाद में बुद्धि की महत्ता के कारण यह 'जिनेन्द्रबुद्धि' कहलाये तथा देवों ने जब इनके चरणों की पूजा की, तब से यह पूज्यपाद' कहलाने लगे। मानवजाति के हित के लिए इन्होने वैद्यकशास्त्र की रचना की थी । यह ग्रन्थ अप्राप्य है । 'कल्याणकारक' में अनेक स्थानों पर 'पूज्यपादेन भाषितः' ऐसा कहा गया है। आन्ध्रप्रदेश में रचित १५ वीं शती के 'वसवराजीय' नामक ग्रंथ में पूज्यपाद के अनेक योगों का उल्लेख मिलता है। पूज्यपाद के अधिकांश योग धातु-चिकित्सा संबंधी हैं। इनका ग्रंथ 'पूज्यपादीय' कहलाता था। यह संस्कृत में रचा होगा। कर्नाटक में पूज्यपाद का एक कन्नड़ में लिखित पद्यमय वैद्यकग्रन्थ मिलता है । 'वैद्यसार' नामक ग्रन्थ भी पूज्यपाद का लिखा बताया जाता है, जो 'जैन सिद्धांत भवन' (आरा) से प्रकाशित हो चुका है, परन्तु ये दोनों ही ग्रन्थ पूज्यपाद के नहीं है।
कन्नड-ग्रंथ-संस्कृत के ग्रन्थों के अतिरिक्त कन्नड़ भाषा में भी जैन आयुर्वेद के ग्रन्थ रचे गये ।
जैन मंगलराज — ने स्थावरविष की चिकित्सा पर 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामक एक बड़ा ग्रन्थ लिखा था । यह प्रारम्भिक हिन्दू विजयनगर साम्राज्यकाल में राजा हरिहर-राज के समय में विद्यमान था । इनका काल ई० सन् १३६० के आसपास माना जाता है ।
वाचरस - ( १५०० ई०) में 'अश्ववैद्यक' की रचना की। इसमें अश्वों की चिकित्सा का वर्णन है ।
पद्मरस या पद्मण पण्डित ने १६२७ ई० में 'हयसारसमुच्चय' (अश्वशास्त्र) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें घोड़ों की चिकित्सा बतायी गई है ।
देवेन्द्रमुनि ने 'बालग्रह चिकित्सा' पर ग्रन्थ लिखा था ।
श्रीधरसेन -- (१५०० ई०) ने 'वैद्यामृत' की रचना की थी।
इसमें २४ अधिकार हैं, जो चौबीस तीर्थंकरों के नामोल्लेख से प्रारंभ होते हैं ।
रामचन्द्र और चन्द्रराज ने 'अश्ववैद्यक', कीर्तिमान ने 'गोचिकित्सा' वीरभद्र ने पालकाप्य कृत हस्त्यायुर्वेद की कन्नड़ टीका, अमृतनन्दि ने वैकनिषष्टु' नामक शब्दकोश साहब ने 'रसरत्नाकर' और 'मांगत्य, जय वने 'महामन्त्रवाद' नामक वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी ।
१६६
दक्षिण की अन्य तमिल आदि भाषाओं में जैन वैद्यक ग्रंथों का संग्रह नहीं हो पाया है ।
उपसंहार यह सुनिश्चित है कि 'प्राणावाय' (जैन आयुर्वेद) की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में दक्षिण भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आठवीं शती में रचित 'कल्याणकारक' इसका ज्वलंत उदाहरण है । परन्तु उत्तरी भारत में तो वर्तमान में एक भी प्राणावाय का प्रतिपादक प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। इससे ज्ञात होता है कि यह परम्परा उत्तर में बहुत काल पूर्व में ही लुप्त हो गई थी। इस दृष्टि से 'दृष्टिवाद' के लुप्त साहित्य का विशेषकर 'प्राणावाय' का, दक्षिणी जैन दिगम्बर-परम्परा में उपलब्ध होना, एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को सूचित करता है।
Jain Education International
—
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org