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प्रन्थकार-परिचय-ग्रन्थ 'कल्याणकारक' में कर्ता का नाम उग्रादित्य दिया हुआ है। उनके माता-पिता और मूल निवास आदि का कोई परिचय प्राप्त नहीं होता । परिग्रहत्याग करने वाले जैन साधु के लिए अपने वंश-परिचय को देने का विशेष आग्रह और आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती। हाँ, गुरु का और अपने विद्यापीठ का परिचय विस्तार से उग्रादित्य ने लिखा है ।
गुरु-उग्रादित्य ने अपने गुरु का नाम श्रीनन्दि बताया है । वह सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र (प्राणावाय) के ज्ञाता थे। उनसे उग्रादित्य ने प्राणावाय में वणित दोषों, दोषज उग्ररोगों और उनकी चिकित्सा आदि का सब प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर इस ग्रन्थ (कल्याणकारक) में प्रतिपादन किया है।
इससे ज्ञात होता है कि श्रीनन्दि उस काल में 'प्राणावाय' के महान् विद्वान् और प्रसिद्ध आचार्य थे। श्रीनन्दि को 'विष्णुराज' नामक राजा द्वारा विशेष रूप से सम्मान प्राप्त था। कल्याणकारक में लिखा है
"महाराजा विष्णुराज के मुकुट की माला से जिनके चरणयुगल शोभित हैं अर्थात् जिनके चरण कमल में विष्णुराज नमस्कार करता है, जो सम्पूर्ण आगम के ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणों से युक्त हैं, मुनियों में श्रेष्ठ हैं, ऐसे आचार्य श्रीनन्दि मेरे गुरु हैं और उनसे ही मेरा उद्धार हुआ है।
उनकी आज्ञा से नाना प्रकार के औषध-दान की सिद्धि के लिए (अर्थात् चिकित्सा को सफलता के लिए) और सज्जन वैद्यों के वात्सल्यप्रदर्शनरूपी तप की पूर्ति के लिए, जिन-मत (जैनागम) से उद्धृत और लोक में 'कल्याणकारक' के नाम से प्रसिद्ध इस शास्त्र को मैंने बनाया ।"
'विष्णुराज' के लिए यहाँ 'परमेश्वर' का विरुद लिखा गया है ।
यह परमश्रेष्ठ शासक का सूचक है। यह विष्णुराज ही पूर्वी चालुक्य राजा कलि विष्णुवर्धन पंचम था, जो उग्रादित्य का समकालीन था, ऐसा नरसिंहाचार्य का मत उनके उपयुक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है। परन्तु पूर्वी चालुक्य राजा कलि विष्णुवर्धन पंचम का शासनकाल ई०८४७ से ८४८ तक ही रहा । एक वर्ष की अवधि में किसी राजा द्वारा महान कार्य सम्पादन कर पाना प्राय: संभव ज्ञात नहीं होता।
श्री वर्धमान शास्त्री का अनुमान है-“यह विष्णुराज अमोघवर्ष के पिता गोविंदराज तृतीय का ही अपर नाम होना चाहिए। कारण महर्षि जिनसेन ने 'पाश्र्वाभ्युदय' में अमोघवर्ष का परमेश्वर की उपाधि से उल्लेख किया है । हो सकता है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटों की परंपरागत हो।"
१. (प) क.का.प. २१, श्लोक ८४
'श्रीनंचाचार्यादोषागमज्ञाद मात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् ।
सभषज्यक्रमं चापि सर्व प्राणावायाधुत्य नीतम् ॥ (भा).का., प. २१, सोक३
श्रीनविप्रभवोऽखिलागमविधि: शिक्षाप्रदः सर्वदा । प्राणावायनिरूपितमधमचिलं सर्वशसंभाषितं ।
सामग्रीगुणता हि सिडिमधुना शास्त्र स्वयं नान्यथा । २. क.का., प. २५, श्लोक ५१-५२
"श्री विष्णुराजपरमेश्वर मौलिमालासंलालितांघ्रियुगलः सकलागम: । मालापनीयगुणसोन्नत सन्मुनीन्द्र: श्रीनंदिनंदितगुरुरुरुजितोऽहम् ॥ तस्याझया विविधभेषजदानसिध्यै सबैचवत्सलतप: परिपूरणार्थम् । शास्त्र कृतं जिनमतोद्धृतमेतद्धत्,
कल्याणकारकमिति प्रथितं धरायाम् ॥ ३. Narasinghacharya-Mysore Archaeological Report, 1922, Page 23. ४. वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री, कल्याणकारक, उपोद्घात, पृ. ४२.
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन अन्य
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