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के आगे '' तथा व्यंजनों के बागे 'आ' लगाकर प्रथमा आदि विभक्तियों की नवीन संज्ञाएँ प्रस्तुत करना पूज्यपाद देवनन्दी की विलक्षणता है। संस्कृत भाषा के किसी भी वैयाकरण ने इस प्रकार से "विभक्ती" शब्द के आधार पर प्रथमा आदि विभक्तियों के नाम नहीं दिए हैं। व्याकरण के क्षेत्र में यह पूज्यपाद देवनन्दी की एक उत्कृष्ट देन है० व्या०
अष्ट। १. वा, १/२/१५८.
प्रथमा, २/३/४६. २. इप, १/२/१५८.
द्वितीया, २/३/२. ३. भा, १/२/१५८.
तृतीया, २/३/१८. ४. अप, १/२/१५८.
चतुर्थी, २/३/१३. ५. का, १/२/१५८.
पंचमी, २/३/२८. ६. ता, १/२/१५८.
षष्ठी, २/३/५०. ७. ईप्, १/२/१५८.
सप्तमी, २/३/३६.
५. मौलिक संज्ञाएँ
अनेक व्याकरण-विषय अन्वर्थक यौगिक शब्दों के लिए पूज्यपाद देवनन्दी ने नई संज्ञाओं का प्रयोग करके मौनिकता और पाणिनीय व्याकरण से भिन्नता दर्शाने का प्रयत्न किया है । जैसे
जै० व्या०
अष्टा० १. खु, १/१/२६.
संज्ञा, २/१/२१. २. ङि, १/१/३०.
भावकर्म, १/३/१३. ३. धु, १/३/१०५.
उत्तरपद, २/१/५१. ४. घि', १/२/२.
अकर्मक, १/३/२६. _ 'टु' संज्ञा के विषय में यह निश्चित नहीं है कि यह मौलिक संज्ञा है अथवा नहीं। हो सकता है कि महाभाष्य में विद्यमान 'द्य' पाठ' अशुद्ध हो एवं इसके स्थान पर 'द्यु' पाठ ही शुद्ध हो । ऐसी अवस्था में सम्भव है कि इस संज्ञा को पूज्यपाद देवनन्दी ने महाभाष्य से लिया हो। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार-"जैनेन्द्र सूत्र १/३/१०५ में उत्तरपद की धु-संज्ञा मानी गई है। पतंजलि के महाभाष्य में सूत्र ७/३/३ पर श्लोकवार्तिक में द्य पाठ है और वहाँ 'किमिदं घोरिति उत्तरपदस्येति' लिखा है। सूत्र ७/१/२१ के भाष्य में अघ को अनुत्तरपद का पर्याय माना है पर कीलहान का सुझाव था कि घु का शुद्ध पाठ द्यु होना चाहिए। वह वात जैनेन्द्र के सूत्र १/३/१०५ 'उत्तरपदं द्य' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है। और अब भाष्य में भी द्य ही शुद्ध पाठ मान लेना चाहिए।"
परिभाषा सूत्र
अष्टाध्यायी एवं जैनेन्द्र-व्याकरण के परिभाषा सूत्रों में पर्याप्त समानता है। परिभाषा सूत्रों में पूज्यपाद देवनन्दी ने केवल ऐसे दो सूत्र दिए हैं जिनका कि पूर्ववर्ती व्याकरण-ग्रन्थों में अभाव है। ये दो सुत्र पूज्यपाद देवनन्दी की विद्वत्ता के परिचायक हैं । ये सूत्र हैं - "नब्बाध्य आसम्" (जै० व्या० १/२/९१) एवं "सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट:" (जै० व्या० ५/२/११४)। "नब्बाध्य आसम्' सूत्र में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र ब्याकरण के सूत्रों के विनियोग की ओर निर्देश किया है। इस सूत्र के अनुसार पुल्लिग अथवा स्त्रीलिङ्ग में निर्दिष्ट संज्ञा से नपुंसकलिङ्ग में निर्दिष्ट संज्ञा का बोध होता है। उदाहरणतः 'प्रो घि च' (जै० व्या० १/२/६६) सूत्र के अनुसार 'कुण्डा' शब्द के 'उ' की 'घि' संज्ञा है तथा 'वि' शब्द नपुसकलिंग में है किन्तु 'स्फे रुः' (जै० व्या० १/२/१००) सूत्र में '' शब्द पुल्लिङ्ग
१. वाजसने यिप्रातिशाख्य में प्रत्येक वर्ग के अन्तिम तीन वर्षों तथा य र ल एवं ह की (कुल २० वर्णो की) 'धि' संज्ञा की गई है। --द्र०वा० प्रा०१/५३. २. यत्र वृद्धि रचामादेस्तनं चावन घोहि सा। महाभाष्य, तृतीय खण्ड, मोतीलाल बनारसीदास, १९६७, पृ० १६४. ३. अग्रवाल, वासुदेवशरण, जै० म०३०, भूमिका, पृ० १२.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्च
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