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स्थिति के ज्ञान को कहते हैं। (४) स्वर ज्ञान -अक्षरात्मक शुभाशुभ शब्द-ज्ञान कहलाता है। (५) स्वप्न ज्ञान-स्वप्न दर्शन द्वारा सुख-दुःख जीवनमरण का ज्ञान कहलाता है। (६) व्यंजन ज्ञान-मस्तक-ग्रीवा आदि में तिल-मशक आदि लक्षणों के द्वारा त्रिकाल सम्बन्धी हिताहित का ज्ञान है । (७) लक्षण ज्ञान-स्वस्तिक, कलश आदि लक्षणों से मान, ऐश्वर्य आदि का ज्ञान है । तथा (6) छिन्न (चिह्न) ज्ञान-देव, दानव, राक्षस, मनुष्य आदि द्वारा छेदे गए शास्त्र एवं वस्त्रादिक चिह्नों को देखकर शुभाशुभ का ज्ञान कहलाता है।' महाबन्ध में ऋद्धिधारी जिनों को प्रणाम करते हुए अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, कामरूपित्व आदि जिन ऋधियों का उल्लेख आया है वे भी दिव्य विद्याओं का विविध रूप रही थीं।
भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती ज्ञान-विज्ञान के पूर्वोक्त चौदह पूओं में जैन विद्याओं से सम्बद्ध जो विषय तालिका आई है उससे भी यह अनुमान लगाना सहज है कि जैन प्राच्य विद्याओं के प्राचीनतम रूपों में दर्शन, तर्क, आचार, समाज, लिपि, गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि से सम्बद्ध मानवीय चिन्तन का इतिहास समाविष्ट रहा था। चौदह पूर्वो में "विद्या प्रवाह" के अन्तर्गत आने वाली विद्याओंमहाविद्याओं को परवर्ती काल में निषिद्ध भी माना जाने लगा। क्योंकि इन महाविद्याओं विद्याओं के ज्ञान से मुनियों को सांसारिक लोभ व मोह उत्पन्न हो सकता था और वीतरागता की ओर बढ़ने में रुकावट भी आ सकती थी।'
जैन परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में विद्याओं-महाविद्याओं की जो समृद्ध परम्परा रही थी आज टूटे हुए कुछ सूत्रों के कारण उन विद्याओं के वास्तविक स्वरूप को भली भांति जानने में अनेक कठिनाइयां आती हैं। इन विद्याओं पर गवेषणात्मक रूप से कार्य करने की आज बहुत आवश्यकता है। सच तो यह है कि ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित लोक-विद्याओं के स्वरूप को जैन साहित्य में सुरक्षा प्राप्त हुई है। मानवीय मस्तिष्क के प्रारम्भिक इतिहास की आदिम-विद्याओं के बारे में यदि जानना हो तो हमें जैन साहित्य की ही शरण में जाना पड़ेगा। चामत्कारिक जैन विद्याएँ
जैन परम्परा मंत्र तंत्र जादू टोने से सिद्ध की जाने वाली विद्याओं को जैन मुनियों के लिए निषिद्ध मानती है। परन्तु संकटकालीन स्थिति में लोककल्याण की भावना व स्वरक्षा की विवशता से इन विद्याओं के प्रयोग का औचित्य भी मान लिया गया था। जैन आगमों के उल्लेख यह बताते हैं कि समाज में अनेक प्रकार की चामात्कारिक विद्याओं का विशेष प्रचलन था। मंखलि गोशाल अष्ट महानिमितों के ज्ञाता थे और हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण सम्बन्धी भविष्यवाणी करते थे। कालकाचार्य के द्वारा भी सातवाहन की सभा में चामत्कारिक विद्या के प्रदर्शन का उल्लेख मिलता है। आर्य खपुट को विद्याबल, बाहुबली, औरस्य, बल, ब्रह्मदत्त-तेजोलब्धि और हरिकेश-गोलब्धि, तथा श्री गुप्त आचार्य को वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगी, वाराही, काकी, और शकुनिका नामक विद्याएं सिद्ध थी। आचार्य रोहगुप्त को मयूरी, नकुली, बिडालो, व्याघ्री, सिंही, उलूकी और उलावको विद्याए सिद्ध थीं तो आचार्य सिद्धसेन योनिप्राभूत के चमत्कार से अश्व उत्पन्न कर सकते थे। जैन आगमों में ऐसे दो क्षुल्लकों का उल्लेख भी आता है जिन्होंने अपनी आंखों में अंजन लगाकर अदृश्य रूप से चन्द्रगुप्त के साथ भोजन किया।' नगर में यदि उपद्रव फैल जाए तो जैन मुनि द्वारा जनता के अनुरोध पर विद्या-प्रयोग से उपद्रव शान्त करने का जैन आगमों में उल्लेख आया है।' डा. जगदीश चन्द्र जैन ने अपने शोध ग्रन्थ-जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज में आगमोक्त अनेकानेक चामत्कारिक विद्याओं पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। उपर्युक्त विद्याओं के अतिरिक्त जैन आगमों में जिन अनेक चमत्कारपूर्ण विद्याओं का उल्लेख आया है वे इस प्रकार हैं-कायोत्सर्ग विधि से वन देवता को कम्पित कर मार्ग पूछा जा सकता था। अभिचारुका विद्या-साधुओं पर किए गए अपकार का प्रतिकार कर सकती थी। स्तम्भनी से प्राकृतिक आपदाओं को शान्त किया का सकता था । अपरावण सा आदि को भगा सकती थी। आभोगनी से दूसरे के मन को जाना जा सकता था। प्रश्न, निमित्त और देवता नामक विद्याएं चोर का पता लगा लेती थीं। अबनामनी और उन्नामनी वृक्ष की शाखाओं को
१. महाबन्ध, प्रथम भाग, पृ० १३ २. डा० हीरा लाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ५३ ३. निशीथचूर्णी, १०.२८६० ४. उत्तराध्ययन टीका, ३, पृ०७२ तथा निशीथ भाष्य, १६.५६०२४ ५. बृहत्कल्प भाष्य, १-२-६-८१, निशीध चूर्णी, ४, पृ० २८१ ६. पिण्ड नियुक्ति, ४६७-५११ ७. निशीधचूर्णी पीठिका, १६७. ८. डा. जगदीश चन्द्र जैन, आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० ३३६-३४७
जैन प्राच्य विद्याएँ
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