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अनुयोग के बिना दूसरा अधूरा रह जाता है। वास्तविकता यह है कि साधक जब तक त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के चरित, युग एवं काल परिवर्तन के नैसर्गिक रूप, सागार एवं अनागर धर्माचरण को नहीं जान लेता तब तक जीवाजीव तत्त्वचर्चारूप-द्रव्यानुयोग में उसकी प्रवृत्ति असंभव है। वैदिक परम्परा में 'अविद्या' के बाद 'विद्या' की जो स्थिति है वैसा ही दृष्टिकोण जैन चिन्तकों का प्रथमानुयोग आदि के सम्बन्ध में रहा है। इस सम्बन्ध में 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' प्रथमानुयोग के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि मिथ्यादृष्टि, अवती, विशेषज्ञान रहित अल्पज्ञ व्यक्ति को जिसका सर्वप्रथम ज्ञान दिया जाये उसे प्रथमानुयोग कहते हैं
प्रथमानुयोग. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमविरतिकमव्युत्पन्न वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृतोऽधिकारः प्रथमानुयोगः।'
प्रथमानुयोग में ६३ शलाका पुरुषों एवं परमार्थ ज्ञान से सम्बन्धित विषय आते हैं। करणानुयोग का प्रयोजन पदार्थों का ययार्थ ज्ञान कराना है। लोक-अलोक का विभाग, युग परिवर्तन की स्थिति तथा चतुर्गति की दिशाएँ इसके प्रतिपाद्य विषय हैं। गणित और ज्योतिष विद्या से यह मुख्यतया अनुप्रेरित है। त्रिलोक सार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति आदि जैनशास्त्र इससे सम्बद्ध ग्रंथ हैं। चरणानुयोग व्यक्ति को पापाचरण से हटाकर धर्माचरण की ओर उन्मुख करता है। मुनि आचार एवं श्रावकाचार इसके विषय हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, मूलाचार, ज्ञानार्णव आदि इस अनुयोग के सिद्धान्त ग्रन्थ हैं। द्रव्यानुयोग मोक्षधर्मी अनुयोग है जिसका उद्देश्य तत्त्वसन्धान, नय प्रमाणादि के द्वारा जीवाजीव तत्त्वों की चर्चा करना है। जैन दर्शन की समग्र तत्त्वमीमांसा इसका विषय है तत्त्वार्थसूत्र, गोमट्टसार, समयसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रंथ इसके अन्तर्गत आते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुयोग-चतुष्टय की परम्परा ने पुराण, इतिहास, आचार, नीतिशास्त्र, गणित, ज्योतिष, सृष्टि विज्ञान एवं दर्शन आदि अध्ययन शाखाओं को शास्त्रीय आयाम दिए । जैन शास्त्रों में विद्याओं का स्वरूप
जैन प्राच्य विद्याओं से हमारा तात्पर्य है ज्ञान-विज्ञान की वे प्राचीन परम्पराएँ हैं जिनका जैन धर्म के मनीषियों द्वारा संवर्धन किया गया। इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम हमें जैनानुमोदित 'विद्या' की मान्यताओं से अवगत होना भी आवश्यक है । जैनशास्त्रों के अनुसार "यथावस्थित वस्तु के स्वरूप का अवलोकन करने की शक्ति" को 'विद्या' कहा गया है। तुलनीय-विद्यया-यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या जनदर्शन के सन्दर्भ में 'सम्यग्दर्शन' और 'सम्यग्ज्ञान' दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। इनमें 'दर्शन' प्रत्येक जीव में स्वसत्ता के अनुभवन की शक्ति को उत्पन्न करता है तो ज्ञान बाह्य वस्तु जगत् के पदार्थों को जानने समझने की शक्ति प्रदान करता है। जैन 'विद्या' का सम्बन्ध 'ज्ञान' से अधिक है । जैन विद्याएँ बहुविध कही गई हैं। जैन परम्परा ने इन्हें समाज शास्त्रीय दृष्टि से कई वर्षों में विभक्त किया है जैसे 'जातिविद्या', 'कुलविद्या', 'तपविद्या' आदि । 'जातिविद्या' को मातृ पक्ष से प्राप्त कहा गया है और 'कुलविद्या' पित परम्परा से सम्पुष्ट मानी जाती है । 'तपविद्या' साधुओं के पास होती है जिन्हें वे व्रतों उपवासों आदि से सिद्ध करते हैं। इनके अतिरिक्त 'महाविद्या-'अल्पविद्या' आदि विद्याओं को तन्त्र-मन्त्र अनुष्ठान आदि से सिद्ध किया जा सकता है। जैन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विद्याधरों की एक विशेष श्रेणि का भी उल्लेख मिलता है जो अनेक प्रकार की विद्याओं में सिद्धहस्त होते हैं। विद्या विषयक विज्ञान में निपुण होने के कारण इन्हें 'विद्याधर' संज्ञा दी गई है। जैन साहित्य में विद्या देवियों का भी उल्लेख आता है। प्रतिष्ठा सारोद्धार के वर्णनानुसार-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृखला, वजांकुश, जाम्बूनदा, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, ज्वालामालिनी, मानसी, वैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी आदि विद्यादेवियां हैं। हरिवंश पुराण के एक वर्णनानुसार नमि और विनमि को अदिति देवी द्वारा विद्याओं के आठ निकाय और गन्धर्व सेनक नामक विद्या कोष के दान देने का उल्लेख मिलता है। आठ-आठ विद्याओं के दो निकायों का जैन शास्त्रों में उल्लेख मिलता है जिनमें (क) मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गान्धार, भूमितुण्ड, मूलवीर्यक, शंकूक तथा (ख) मालंक, पाण्डु, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल, वृक्षमूल, नामक १६ विद्याएं परिगणित हैं जो (क) आर्य, आदित्य गन्धर्व, व्योमचर तथा (ख) दैत्य पन्नग मातंग आदि संज्ञाओं से भी प्रचलित रहे थे । महानिमित्तज्ञान नामक विद्या निकाय में जो विद्याए पठित हैं उनके नाम इस प्रकर हैं-अन्तरिक्ष, भोम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यञ्जन और छिन्न (1) अन्तरिक्षज्ञान-प्रह नक्षत्रों आदि के अस्त और उदय से भूत भविष्यत् सम्बन्धी ज्ञान कहलाता है। (२) भौम ज्ञान-भूमि और दिशाओं के आधार पर जय-पराजय एवं भूमिगत प्रच्छन्न धन के ज्ञान को कहते हैं। (३) अंग ज्ञान-अंग उपांगों को देखकर सुख दुःखादि की
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग १, पृ० १०३ २. न्याय विनिश्चय, १.३८.२८२.६ ३. विशेष द्रष्टव्य-जै. सि. को., भाग ३, ५०, ५५२
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ
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