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यदि उसकी शक्ति शनैः शनैः नष्ट होती जाये या बिखरती जाये, तो कालान्तर में उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इस ब्रह्माण्ड को कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि इसका निर्माण आज से कुछ अरब वर्ष पहले किसी निश्चित तिथि पर हुआ। दूसरी मान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। आइन्सटाइन का विश्व-सम्बन्धी बेलन सिद्धान्त (Cylindrical Theory of the Universe) में इसी प्रकार की मान्यता है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह ब्रह्माण्ड तीन दिशाओं (लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई) में सिलिण्डर (बेलन) की तरह सीमित है किन्तु समय की दिशा में अनन्त है। दूसरे शब्दों में, हमारा ब्रह्माण्ड अनन्त काल से एक सीमित पिण्ड की भांति विद्यमान है। आइन्सटाइन के मतानुसार यह ब्रह्माण्ड चार आयामों (Dimnsions ) का पिण्ड (Four dimensional Universe) है । (तीन आयाम तो लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई के हैं तथा चौथा आयाम समय का है।
वैसे तो अगर हम यह सोचने लगें कि यह आसमान कितना ऊँचा होगा, तो इसकी सीमा की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। हमारा मन कभी यह मानने को तैयार नहीं होगा कि कोई ऐसा स्थान भी है जिसके आगे आकाश नहीं है । जैन शास्त्रों में भी विश्व को अनादि-अनन्त बताया है और उसके दो विभाग कर दिये हैं - एक का नाम 'लोक' रखा है जिसमें सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि सभी पदार्थ गभित हैं और इसका आयतन 343 घनरज्जु है। आइन्सटाइन ने भी लोक का आयतन घन-मीलों में दिया है। एक मील लम्बे, एवं मील चौड़े और एक मील ऊँचे आकाशीय खण्ड को एक घनमील कहते हैं । इसी प्रकार एक रज्जु लम्बे, एक रज्ज चौड़े और एक रज्जु ऊँचे आकाशीय खण्ड को एक घनरज्जु कहते हैं। आइन्सटाइन ने ब्रह्माण्ड का आयतन 1037x1063 घनमील बताया है अर्थात् 1037 लिखकर उसके आगे 63 बिन्दु लगाने से जो संख्या बनेगी (कुल अंकों की संख्या 67), उतने घनमील विश्व का आयतन है। इसको 343 के साथ समीकरण करने पर एक रज्जु, 15 हजार शंखमील के बराबर होता है।
ब्रह्माण्ड के दूसरे भाग को 'अलोक' कहा गया है । लोक से परे, सीमा के बन्धनों से रहित अलोकाकाश लोक को चारों ओर से घेरे हुए है। यहां आकाश के सिवाय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है।
लोक और अलोक के बीच की सीमा का निर्धारण करने वाला द्रव्य धर्म अर्थात 'ईथर' है । चुकि लोक की सीमा से परे ईथर का अभाव है इसलिए लोक में विद्यमान कोई भी जीव या पदार्थ अपने सुक्ष्म से सूक्ष्म रूप में अर्थात् एनर्जी के रूप में भी लोक की सीमा मे बाहर नहीं जा सकता। इसका अनिवार्य परिणाम यह होता है कि विश्व के समस्त पदार्थ और उसकी सम्पूर्ण शक्ति लोक के बाहर नहीं बिखर सकती और लोक अनादि काल तक स्थायी बना रहता है । यदि विश्व की शक्ति शनैः शनैः अनन्त आकाश में फैल जाती तो एक दिन इस लोक का अस्तित्व ही मिट जाता । इसी स्थायित्व को कायम रखने के लिए आइन्सटाइन ने 'कर्वेचर ऑफ स्पेस' की कल्पना की। इस मान्यता के अनुसार आकाश के जिस भाग में जितना अधिक पुद्गल द्रव्य (matter) विद्यमान रहता है, उस स्थान पर आकाश उतना ही अधिक गोल हो जाता है। इस कारण ब्रह्माण्ड की सीमाएँ गोलाईदार हैं । शक्ति जब ब्रह्माण्ड की गोल सीमाओं से टकराती है तब उसका परावर्तन हो जाता है और वह ब्रह्माण्ड से बाहर नहीं निकल पाती। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की शक्ति अक्षुण्ण बनी रहती है और इस तरह वह अनन्त काल तक चलती रहती है।
पद्गल की विद्यमानता से आकाश का गोल हो जाना एक ऐसे लोहे की गोली है जिसे निगलना आसान नहीं । आइन्सटाइन ने इस ब्रह्माण्ड को अनन्त काल तक स्थायी रूप देने के लिए ऐसी अनूठी कल्पना की। दूसरी ओर जैनाचार्यों ने इस मामले को यों कह कर हल कर दिया कि जिस माध्यम में हो कर वस्तुओं, जीवों और शक्ति का गमन होता है, लोक से परे वह है ही नहीं। यह बड़ी युक्तिसंगत और बुद्धिगम्य बात है । जिस प्रकार जल के अभाव में कोई मछली तालाब की सीमा से बाहर नहीं जा सकती, उसी प्रकार लोक से अलोक में शक्ति का गमन, ईथर के अभाव के कारण, नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों का धर्मद्रव्य मैटर या एनर्जी नहीं है, किन्तु विज्ञान वाले ईथर को एक सूक्ष्म पौद्गलिक माध्यम मानते चले आ रहे है और अनेकानेक प्रयोगों द्वारा उसके पौद्गलिक अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु वे आज तक इस दिशा में सफल नहीं हो पाये हैं। हमारी दृष्टि से इसका एकमात्र कारण यह है कि ईथर अरूपी पदार्थ है । कहीं तो बैज्ञानिकों ने ईथर को हवा से भी पतला माना है और कहीं स्टील से भी अधिक मजबूत । ऐसे परस्पर-विरोधी गुण वैज्ञानिकों के ईथर में पाये जाते हैं और चूंकि प्रयोगों के द्वारा वे उसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके हैं इसलिए आवश्यकतानुसार वे कभी उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं और कभी इन्कार । वास्तविकता यही है जो जैनागम में बतलायी गयी है कि ईथर एक अरूपी द्रव्य है जो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में समाया हुआ है और जिसमें से होकर जीव और पुद्गल का गमन होना है। यह ईथर द्रव्य प्रेरणात्मक नहीं है, यानी किसी जीव या पुद्गल को चलने की प्रेरणा नहीं करता वरन् स्वयं चलने वाले जीव या पुद्गल की गति में सहायक हो जाता है, जैसे इंजन के चलने में रेल की पटरी (लाइने) सहायक हैं। इस द्रव्य के बिना किसी द्रव्य की गति सम्भव नहीं है।
जैन प्राच्य विद्याएं
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