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जिनभद्रगणि के एक गणितीय सूत्र का रहस्य
डॉ० राधाचरण गुप्त
श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जैनियों के दसवें युग-प्रधान कहे गये हैं। इनका समय ईसवी सन् 600 के आसपास था। वलभी नरेश मैत्रक के अधीन रहकर उन्होंने शक 531 (अर्थात 609 ई०) में आवश्यकसूत्र के सामयिकाध्ययन खण्ड पर अपने विशेषावश्यक भाष्य की रचना की थी जिसमें लगभग 3600 प्राकृत गाथाएँ हैं। विशेषावश्यक भाष्य पर कोट्याचार्य ने एक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त जिनभद्रजी को अनेक अन्य ग्रन्थों व टीकाओं का भी रचयिता माना गया है जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं
1. क्षेत्रसमास या बृहत्क्षेत्रसमास । 2. बृहत्संग्रहणी। 3. जीतकल्प। 4. ध्यानशतक । 5. निशीथभाष्य । ११. प्रज्ञापनासूत्र को टोका । 7. सरीरपाद की टीका !
यहाँ हम जिनभद्र के केवल बहतक्षेत्रसमास की चर्चा करेंगे, जोकि 637 गाथाओं में है। इसपर निम्नलिखित विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं :
1. हरिभद्र (लगभग 1128 ई०) 2. देवगुप्त सूरि के शिष्य सिद्धसूरि (लग० 1135 ई.) 3. मलयगिरि (लग० 1150 ई०) । 4. विजयसिंह (लग० 1158 ई०) । 5. देवभद्र (लग 1176 ई०)? 6. जिनेश्वर के शिष्य आनन्दसूरि (लग० 1225 ई०) 7. पद्मप्रभ के शिष्य देवानन्द (लग० 1398 ई.)? 8. पद्मानन्द सूरि (?)
इनके अतिरिक्त कुछ अज्ञात लेखकों की टीकाओं का भी वर्णन मिलता है जैसे लघुवृत्ति तथा बालबोध (प्राचीन राजस्थानी में)। इन सब में से केवल मलयगिरि की टीका के साथ जिनभद्र का क्षेत्रसमास भावनगर से संवत् 1977 (अर्थात् सन् 1920-21 ई०) में जैन धर्म प्रसारक सभा द्वारा प्रकाशित हुआ है।
इस लेख में हम जिनभद्रगणि के केवल उस एक गणितीय सूत्र का विवेचन करेंगे, जिसको उन्होंने अपने बहत्क्षत्रसमास (अ0 1, गाथा 122) में उद्धृत किया है । यह सूत्र उन्होंने एक वृत्त में दो समानान्तर जीवाओं (chords) के बीच के वृत्तीय खण्ड (अर्धवृत्त से कम) का क्षेत्रफल निकालने के लिए दिया है। उसका उपयोग जम्बूद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों (भारतवर्ष से ऐरावत वर्ष तक के क्षेत्रफलों (areas) को प्राप्त करने में किया जा सकता है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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