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सन्देह नहीं व्यक्त किया है। पतंजलि के महाभाष्य में बृहस्पति द्वारा इन्द्र को व्याकरण पढ़ाये जाने का उल्लेख है । जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि ऐन्द्र व्याकरण प्रतिपद व्याकरण था । उसके अतिरिक्त ऐन्द्र व्याकरण की ऐतिहासिकता के विषय में और भी अधिक उल्लेख मिलते हैं।" वे सभी उल्लेख जहां ऐन्द्र व्याकरण की ऐतिहासिकता सिद्ध करते है वहां उसके आदि जैन व्याकरण होने पर
कुछ
भी निश्चित प्रकाश नहीं डालते । हां, इस सम्बन्ध में एक अनुमान परक निष्कर्ष अवश्य निकाला जा सकता है । प्राचीनकाल में जहां माहेश्वर व्याकरण ब्राह्मण धारा का प्रतिनिधि व्याकरण था, वहां ऐन्द्र व्याकरण जैन धारा का प्रतिनिधि व्याकरण रहा होगा । वार्तिककार कात्यायन द्वारा, जो स्वयं ऐन्द्र सम्प्रदाय के थे, माहेश्वर सम्प्रदाय के पाणिनि सूत्रों पर वार्तिकों की रचना कर देने से दोनों सम्प्रदायों में जो भी विभेद रहा होगा वह पूरी तरह समाप्त हो गया ।
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जैनेन्द्र पूर्ववर्ती जैन व्याकरण में शब्दप्राभृत का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है । यह सम्भवतः संस्कृत भाषा में लिखा हुआ संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ था जिसके सम्बन्ध में सिद्धसेन गणि ने कहा है कि "पूर्वो में जो शब्द प्राभृत है, उसमें से व्याकरण का उद्भव हुआ है ।' यह ग्रन्थ इस समय नहीं मिलता। इस सम्भाव्य ग्रन्थ के विषय में इतना और जानने योग्य है कि यह स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर एक ग्रन्थ समुदाय का अंग था । "जैन आगमों का १२वां अंग दृष्टिवाद के नाम से था, जो अब उपलब्ध नहीं है । इस अंग में १४ पूर्वं सन्निविष्ट थे । प्रत्येक पूर्व का वस्तु और वस्तु का अवान्तर विभाग प्राभृत के नाम से जाना जाता था। आवश्यक चूर्णि अनुयोगद्वारा चूर्णि सिद्धसेन गणिकृत तत्वार्थसूत्र भाष्य टीका और मलधारी हेमचन्द्र सूरिकृत अनुयोगद्वारसूत्र टीका में शब्द प्राभृत का उल्लेख मिलता है।" इस विवरण से अनुपलब्ध शब्द प्राभृत का महत्व इस दृष्टि से ज्ञात होता है कि एक विशेष समय में व्याकरण शास्त्र को जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थों में अंतरंग स्थान मिल गया था ।
जैन परम्परा में क्षपणक का वैयाकरण के रूप में बहुत अधिक महत्व है। क्षपणक कौन थे, इस बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती। विद्वानों ने वैयाकरण क्षपणक को विक्रम के नवरत्नों में उल्लिखित क्षपणक से अभिन्न माना है जिनके विषय में कालिदास ने अपने ज्योतिर्विदाभरण नामक ग्रन्थ में लिखा है। यदि इस ग्रन्थ में उल्लिखित क्षपणक वैयाकरण क्षपणक से अभिन्न है तो इस आचार्य का समय ईसा की प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है। जैन परम्परा में एक और व्याकरण भी इसी शताब्दी में हुए हैं- आचार्य सिद्धासेन दिवाकर। सिद्धसेन अपने समय के महान् विद्वान थे और जैनेन्द्र व्याकरण में नामोल्लेख पूर्वक इनका मत उद्धृत किया गया है। जिससे इनका एक लब्धप्रतिष्ठ वैयाकरण होना सिद्ध होता है। समकालिकता और विद्या क्षेत्र की समानता होने के कारण ऐसी धारणा भी व्यक्त की गई है कि ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। "
क्षपणक द्वारा लिखित व्याकरण आज उपलब्ध नहीं हैं परन्तु जिस प्रकार के उल्लेख क्षपणक के व्याकरण के विषय में मिलते हैं उससे स्वाभाविक रूप से यह निष्कर्ष प्राप्त हो जाता है कि क्षपणक ने अनेक प्रकार के व्याकरण-पाठ लिखे थे और सम्भवतः उसने व्याकरण-सम्प्रदाय की स्थापना की थी। मैत्रेपरक्षित द्वारा रचित तन्त्रप्रदीप में क्षपणक व्याकरण के अनेक उल्लेख मिलते हैं । तन्त्रप्रदीप १,४, २५ में क्षपणक व्याकरण ४,१, १५५, में क्षपणक महान्यास उज्ज्वलदत्त मणि के उणादि -पाठ में क्षपणक के उणादि पाठ के उल्लेख मिलते हैं । महान्यास शब्द से किसी न्यास या लघु न्यास की रचना सम्मिलित प्रतीत होती है। इस उल्लेख परम्परा से क्षपणक के शब्दानुशासन के अनेक पाठों तथा उसके विपुल प्रभाव का परिचय मिल जाता है ।
जैनेन्द्र पूर्ववर्ती जैन व्याकरण में एक आयाम उन आचार्यों का है, जिनका नामोल्लेख पूर्वक मत का उद्धरण देवनन्दी और पात्यकीर्ति ने किया है, परन्तु जिनके ग्रन्थ थे या नहीं इस सम्बन्ध में मतभेद है। दूसरा आयाम ऐन्द्र व्याकरण का है जिसे कतिपय विद्वान आदि जैन व्याकरण मानने के पक्ष में हैं। तीसरे आयाम के अन्तर्गत शब्दप्राभृत और क्षपणकशब्दानुशासन आते हैं जिनकी ऐतिहासिक निश्चतता जैनेन्द्रपूर्ववर्ती जैन व्याकरण में सबसे अधिक है, पर ये दोनों ग्रन्थ भी अद्यावधि उपलब्ध नहीं हो पाये हैं । इस प्रकार जैनेन्द्र पूर्ववर्ती जैन व्याकरण की परम्परा लम्बी होते हुए भी ऐतिहासिक निश्चितता और उपलब्धि की अपेक्षा अभी रखती है ।
१. "वृपतिरिद्राय" इत्यादि, महाभाष्य, पस्पशाहूनिक ( ० १ पा० १, आह निक१)
२. मानिक, सं० प० शा० का इतिहास, भाग १, पृ० ८३-८
३. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग ५, १६६६, पृ० ६.
४. धन्याः क्षणकोऽमरसिंह कुवामघट र कालिदासः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायाम ।
रत्नानि वेवररुचिनंव विक्रमस्य ।। " ज्योतिर्विदाभरण, २०, १०.
५. मीनांमक, यु०, स० व्या० शा० का इतिहास भाग १, पृ० ५२६-३०.
जैन प्राच्य विद्याएँ
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