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शताब्दी में बादशाह अकबर ने भी परीक्षण किया । विशेष सावधानी बरती गई । बड़ी उत्सुकता से परिणाम की प्रतीक्षा रही । अन्त में यह देखकर सब चकित थे कि सभी बच्चे मूक रह गये। एक भी शब्द बोलना उन्हें नहीं आया ।
प्रयोगों से स्पष्ट है कि संसार में कोई भी भाषा ईश्वर-कृत नहीं है और न जन्म से कोई किसी भाषा को सीखे हुए आता है । यह मान्यता श्रद्धा और विश्वास का अतिरेक है । महत्त्व की एक बात और है। यदि भाषा स्वाभाविक या ईश्वरीय देन होती, तो वह आदि काल से ही परिपूर्ण रूप में विकसित होती । पर, भाषा का अब तक का इतिहास साक्षी है कि शताब्दियों की अवधि में भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूप क्या-से-क्या हो गये हैं । उनमें उत्तरोत्तर विकास होता गया है, जो किसी एक भाषा के शताब्दियों पूर्व के रूप और वर्तमान रूप की तुलना से स्पष्ट ज्ञात हो सकता है । इस दृष्टि से विद्वानों ने बहुत अनुसन्धान किया है, जिसके परिणाम विकास की शृंखला और प्रवाह का प्रलम्ब इतिहास है ।
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अठारहवीं शती में श्री जे० जी० हर्डर नामक विद्वान् हुए उन्होंने सन् १७७२ में भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पूर्ण निबन्ध लिखा भाषा की देवी उत्पत्ति के बारे में उन्होंने उसमें समीक्षात्मक दृष्टि से विचार किया और उसे मुक्ति एवं तर्कपूर्वक अमान्य ठहराया । पर स्वयं उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किसी ठोस सिद्धान्त की स्थापना नहीं की । देवी सिद्धान्त का उन्होंने खण्डन तो किया, पर साथ ही यह भी कहा कि भाषा मनुष्य-कृत नहीं है । मनुष्य को उसकी आवश्यकता थी, स्वभावतः उसका विकास होता
गया ।
अज्ञात को ज्ञात करना प्रज्ञा का स्वभाव है । भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में देवी उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रज्ञाशील मानव को - समाधान नहीं दे सका । मानव से बुद्धि और अनुमान के आधार पर तब समाधान ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न किया । यही ज्ञान के विकास का क्रम है । अपने प्रयत्न में कौन कितना सफल हो सका, यह समीक्षा और विश्लेषण का विषय है, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे प्रयत्न जिज्ञासा की ओर आगे बढ़ने वालों के लिए बड़े प्रेरक सिद्ध हुए । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि भाषा के 'उद्भव के सम्बन्ध में अधिकांशत कल्पनाओं के आधार पर समाधान ढ़ दे जाते रहे हैं; नहीं था ।
क्योंकि दूसरा कोई ठोस आधार
भाषा का उद्भव मूलभूत सिद्धान्त
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निर्णय सिद्धान्त :- एक मत है, जब भाषा नहीं थी, तो लोग परस्पर में हाथ आदि के संकेतों से किसी तरह अपना काम चलाते थे। पर, इससे उनको सतोष नहीं था । उत्तरोत्तर जीवन विकास पाता जा रहा था । साधन सामग्री में विविधता और बहुलता आ रही थी। विकासमान परिस्थिति मन में अनेक प्रकार के नये-नये भावों को उत्पन्न करती थी। पर इन सब के लिए अभिव्यक्ति के
हतु मानव के पास कुछ था नहीं। सबके लिए इसकी बड़ी खिन्नता थी । सब एकत्र हुए। अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन ढूंढ़ना था । विभिन्न वस्तुओं, क्रियाओं आदि के प्रतीक का संकेत के रूप में कुछ ध्वनियां या शब्द निश्चित किये। उनके सहारे वे अपना काम चलाने लगे । शब्दों का जो प्रयोग-क्रम चल पड़ा, उसने और नये-नये शब्द गढ़ने तथा व्यवहार में लाने की ओर मानव को उद्यमशील रखा । भाषा विज्ञान में इसे 'निर्णय सिद्धांत' कहा जाता है। प्रो० रूसो इसके मुख्य समर्थक थे । इसे प्रतीकवाद, संकेतवाद या स्वीकारवाद भी कहते हैं; क्योंकि इसमें शब्दों का प्रतीक या संकेत के रूप में स्वीकार हुआ ।
कल्पना सुन्दर है, पर, युक्तियुक्त नहीं है। यदि कोई भाषा नहीं थी, तो सबसे पहले यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे एकत्र ही कैसे हुए ? एकत्र होने के लिए भी तो कुछ कहना समझाना पड़ता है। बिना भाषा के कहने की बात कैसे बनी ? एकत्र हो भी जाए, तो विचार-विनिमय से होता ? विचार-विनिमय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। विभिन्न वस्तुओं और क्रियाओं के लिए संकेत या ध्वनियों का स्वीकार या निर्णय भी बिना भाषा के सम्भव कैसे होता ? इस कोटि का विचारविमर्श भाषा के बिना केवल संकेतों से सम्भव नहीं था ।
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि वे एकत्र हो सके, ध्वनियों या शब्दों के रूप में नामों का निणय कर सके, तो उनके पास, चाहे अपूर्ण, अविकसित या टूटी-फूटी ही सही, कोई भाषा अवश्य ही होगी। उसके अभाव में यह सब सम्भव नहीं था । यदि किसी भी प्रकार की भाषा का होना मान लें, तो फिर नामों की खोज के लिए एकत्र होने की आवश्यकता नहीं रहती । उसी अपूर्ण भाषा को पूर्ण या विकसित बनाया जा सकता था ।
धातु सिद्धान्त :- भाषा के उद्भव के सन्दर्भ में एक और विचार आया, जो बड़ा कुतूहल-जनक है । वह भाषा विज्ञान में 'धातु सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनुसार संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं, उनकी अपनी अपनी वनियां हैं। उदाहरणार्थ
जंन तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ
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