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ध्वनियों के वर्गीकरण का मार्ग दिखाया तथा ग्रीक भाषा की ध्वनियों को घोष और अबोष; इन दो भागों में विभक्त किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का यह सबसे पहला प्रयत्न था।
प्लेटो ने भाषा और विचार के सम्बन्ध पर भी चर्चा की है। उसके अनुसार विचार और भाषा में केवल इतना ही ही अन्तर है कि विचार आत्मा का अध्वन्यात्मक या निःशब्द वार्तालाप है और जब वह ध्वन्यात्मक होकर मुख-विवर से व्यक्त होता है, तो उसकी संज्ञा भाषा हो जाती है। सारांश यह है कि प्लेटो के अनुसार भाषा और विचार में मूलत: ऐक्य है। केवल बाह्य दृष्टि से ध्वन्यात्मकता और अध्वन्यात्मकता के रूप में अन्तर है।
प्लेटो वाक्य-विश्लेषण और शब्द-भेद के सम्बन्ध में भी कुछ आगे बढ़े हैं। उद्देश्य, विधेय, वाच्य, व्यत्पत्ति आदि पर भी उनके कुछ संकेत मिलते हैं, जो भाषा-विज्ञान सम्बन्धी यूनानी चिन्तन के विकास के प्रतीक हैं। अरस्तू का काव्यशास्त्र
यनान के तीसरे महान् दार्शनिक, काव्यशास्त्री और चिन्तक अरस्तू थे। उनका भी मुख्य विषय भाषा नहीं था, पर. प्रासंगिक रूप में भाषा पर भी उन्होंने अपना चिन्तन दिया । अरस्तू का एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ पोयटिक्स (काव्यशास्त्र) है, जिसमें उन्होंने त्रासदी. कामदी आदि काव्य-विधाओं का मामिक विवेचन किया है। पोयटिक्स के दूसरे भाग में अरस्तु ने जहां, शैली का विश्लेषण किया है. वहां भाषा पर भी कुछ प्रकाश डाला है। यद्यपि वह भाषा-विज्ञान से साक्षात् सम्बद्ध नहीं है, पर, महत्त्वपूर्ण है। उनके अनसार वर्ण अविभाज्य इवनि है। वह स्वर, अन्तस्थ और स्पर्श के रूप में विभक्त है। दीर्घ, ह्रस्व, अल्पप्राण तथा महाप्राण आदि पर भी उन्होंने चर्चा को है। उन्होंने स्वर की जो परिभाषा दी, वस्तुतः वह कुछ दृष्टियों से वैज्ञानिक कही जा सकती है। उन्होंने बताया कि जिसकी ध्वनि के उच्चारण में जिह्वा और ओष्ट का व्यवहार न हो, वह स्वर है।
उद्देश्य, विधेय, संज्ञा, क्रिया आदि पर भी अरस्तू ने प्रकाश डाला है। कारकों तथा उनको प्रकट करने वाले शब्दों का भी उन्होंने विवेचन किया है, जो यूरोप में इस कोटि का सबसे पहला प्रयास है। प्लेटो ने शब्दों के श्रेणी-विभाग (Parts of speech) का जो ण्यत आरम्भ किया था, उसे पूरा कर आठ तक पहुंचाने का श्रेय अरस्तू को ही है। उन्होंने लिग (स्त्रीलिंग, पुल्लिग, नप सक लिंग) भेद तथा उनके लक्षणों का भी विश्लेषण किया। ग्रीक, लैटिन और हिब्रू
ग्रीक वैयाकरणों ने तदनन्तर प्रस्तुत विषय को और आगे बढ़ाया। जिनमें पहले थे क्स (ई० पू० दूसरी शती) है। ग्रीस और रोम में जब पारस्परिक संपर्क बढ़ने लगा, तब विद्याओं का आदान-प्रदान भी प्रारंभ हुआ। फलत: रोमवासियों ने ग्रीस की भाषा असायन-प्रणाली को ग्रहण किया और लैटिन भाषा के व्याकरणों की रचना होने लगी। लेटिन का सबसे पहला प्रामाणिक व्याकरण बोगस बाल नामक विद्वान द्वारा लिखा गया । वह ईसाई-धर्म के प्रभाव का समय था ; अत: ग्रीस और रोम में ओल्ड टेस्टामेंट
Restament) के अध्ययन का एक विशेष क्रम चला । उस बीच विद्वानों को ग्रीक, लैटिन और हिब्रू भाषाओं के तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन का विशेष अवसर प्राप्त हुआ ।
ओल्ड टेस्टामेंट की भाषा होने के कारण उस समय हिब्र को वहां सबसे प्राचीन तथा सब भाषाओं की जननी माना जाता फलतः विद्वानों ने यूरोप की अन्य भाषाओं के वैसे शब्दों का अन्वेषण आरम्भ किया, जो हिब्रू के तदर्थक शब्दों के सदश या मिलते. बोरसे कोश बनने लगे, जिनमें इस प्रकार के शब्दों का संकलन था । उन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से साध्य है, ऐसा
करने का भी प्रयास चलने लगा । इस सन्दर्भ में तत्कालीन विद्वानों का अरबी तथा सीरियन आदि भाषाओं के परिशीलन की ओर भी ध्यान गया ।
पन्द्रहवीं शती यूरोप में विद्याओं और कलाओं के उत्थान या पुनरुज्जीवन का समय माना जाता है । साहित्य, संस्कृति आदि बकास के लिए जन-मानस जागृत हो उठा था तथा अनेक आन्दोलन या सबल प्रयत्न पूरे वेग के साथ चलने लगे थे। भिन्न-भिन्न देश जामियों का अपनी-अपनी भाषाओं के अभ्युदय की ओर भी चिन्तन केन्द्रित हुआ । परिणामस्वरूप भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का जितना जैसा संभव था, उपक्रम चला । भाषा-अध्येताओं ने इस सन्दर्भ में जो उपलब्धियां प्राप्त की, उनमें से कुछ थीं :
--विद्वानों को ऐसा आभास हुआ कि ग्रीक और लैटिन भाषाए सम्भवतः किसी एक ही स्रोत से प्रस्फुटित हुई हैं। —भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण की दृष्टि से यह, चाहे अति साधारण ही सही, एक प्रेरक संकेत था। -विद्वानों को चाहे हल्की ही सही, ऐसी भी प्रतीति हुई कि हो सकता है, शब्दों का आधार धातुएं हों।
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ
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