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हुआ है समिच्य लोए खेयन्ने हि पवेइए' में यह सुस्पष्ट रूप से कहा गया है कि समस्त लोक की पीड़ा का अनुभव करके ही तीर्थकर की जनकल्याणी वाणी प्रस्फुटित होती है। यदि ऐसा माना जाय कि जैन साधना केवल आत्महित, आत्म-कल्याण की बात कहती है तो फिर तीर्थकर के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन या संघ संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता क्योंकि केवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता है। अतः मानना पड़ेगा कि जैन साधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोककल्याण भी है।
जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन विचारणा के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊंचाई पर स्थित सभी जीवनमुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से, यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य केवली (जीवनमुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक पूर्णताएं तो समान ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को लोकहित की दृष्टि के कारण सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। जीवनमुक्तावस्था को प्राप्त कर लेनेवाले व्यक्तियों के, उनकी लोकोपकारिता के आधार पर तीन वर्ग होते हैं--१. तीर्थकर, २. गणघर और ३. सामान्य केवली।
साधारणरूप में क्रमशः विश्वकल्याण, वर्ग-कल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएं निर्धारित की गई हैं, जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बौद्ध विचारणा में बोधिसत्व और अहंत के आदर्शों में भिन्नता है, उसी प्रकार जैन साधना में तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों में तारतम्य है।
इन सबके अतिरिक्त जैन साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य भद्रबाहु एवं कालक की कथाएं इसका उदाहरण हैं।
स्थानांग सूत्र में जिन दस धर्मों का निर्देश दिया गया है, उनमें संघ धर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगर धर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोककल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है।'
यद्यपि जैन दर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, लेकिन उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोक कल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं; सांसारिक उपलब्धियां संसार के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए। लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जावे। ऐसा लोकहित, जो व्यक्ति के चरित्र पतन अथवा आध्यात्मिक कुंठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है, लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका स्वर्णिम सूत्र है आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहां आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुठन पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहां आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है।
आत्महित स्वार्थ नहीं है -यहां हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन धर्म का यह आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्म-काम वस्तुतः निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं है अतः उसका स्वार्थ भी नहीं होता । आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं चाहता है। वह तो उनका विसर्जन करता है । स्वार्थी तो वह है जो यह चाहता है कि सभी लोग उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिए कार्य करें। स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग और रागद्वेष की वृत्तियां काम करती हैं जबकि आत्मकल्याण का प्रारंभ ही राग-द्वेष की वृत्तियों को क्षीण करने से होता है। यथार्थ आत्महित में राग-द्वेष का अभाव है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी तक है जबकि उनमें राग-द्वेष वृत्ति निहित हो । रागादि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जानेवाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज-कल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति के हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है लेकिन उस अवस्था में न तो अपना रहता है न पराया क्योंकि जहां राग है वहीं 'मेरा' है और जहां मेरा है वहीं पराया है। राग की शून्यता
१. आचारांग, १/४/१ २. देखिये-योगबिन्दु, २८५-२८८ ३. स्थानांग, १०/७६०
जैनतत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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