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नहीं परन्तु मानव समाज के लिए आशीर्वाद स्वरूप है---कहना जरा भी गलत नहीं। इनकी पुस्तक प्रकाशन एवं पुस्तकालयों के कार्य में भिक्षुसंघ की प्रेरणा एवं ज्ञान साथ ही श्रावक संघ की आर्थिक सहायता एवं उदारता का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है।
जैन साधु किसी भी स्थान में लम्बे समय तक नहीं रह सकते मात्र वर्षा ऋतु में ही वे नियत स्थानों में रुकते हैं। इस प्रकार वर्ष में अधिकांश समय जैन साधु भ्रमण में व्यतीत करते हैं। उनके इस पैदल प्रवास में वे एक गांव से दूसरे गांव, और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं। इससे वे विभिन्न स्थानों एवं नगरों से परिचित होते हैं, विविध संस्कृतियों का मेल होता है। भ्रमणावसर पर राह में आने वाले शिल्प-स्थापत्य, प्राचीन अवशेष, ऐतिहासिक स्थलों को देखने का अवसर मिलता है। समाज के विभिन्न रहन-सहन, एवं रीतिरिवाजों से परिचित होते हैं साथ ही मार्ग के गांवों से ज्ञानभण्डारों का अलभ्य ज्ञान प्राप्त होता है जिससे नयी खोज में अनुकूलता रहती है। वर्षाऋतु में स्थायी निवास से लेखन एवं सर्जनात्मक कार्य अच्छी तरह हो सकता है। जैन साधुओं को भ्रमण की अनुकूलता और वर्षाऋतु के स्थायी निवास का सुअवसर, अधिकांश साधुओं की जिज्ञासावृत्ति और कर्मशीलता एवं इतिहास के प्रति उनकी रुचि के लिए पोषक सिद्ध हुई है। परिणामस्वरूप तीर्थों का सामान्य परिचय, मन्दिर एवं मूर्तियों का सूक्ष्म वर्णन, मन्दिर रचना एवं प्रतिमा स्थापना के लेखों का वाचन एवं सम्पादन जैसे इतिहास एवं संस्कृति के अनेक ग्रन्थों के लेखन में जैन साधुओं ने विशिष्ट योगदान दिया है विशेषत: तीर्थ एवं तीर्थस्थानों के वर्णन और उनके महात्म्य संबंधी वर्णन इन ग्रन्थों में अधिक हैं । परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन ग्रन्थों का महत्त्व कम नहीं है। क्योंकि उनमें केवल तीर्थों एवं प्रतिमाओं का ही वर्णन नहीं साथ ही प्रतिमा लेखों या शिलालेखों का अध्ययन, स्थानों का भौगोलिक परिचय, स्थान, नामों के पर्वकालिक-समकालीन परिचय, तत्कालीन राजनीति का वर्णन, सामाजिक जीवन का वर्णन और जैनेतर तीर्थों जैसी इतिहासोपयोगी सामग्री प्राप्त होती है। इसी प्रकार के यात्रा वर्णन के पुस्तकों को मूल्यांकन करते हुए मुनि श्री विद्याविजयजी लिखते हैं-"किसी भी राष्ट्र के इतिहास निर्माण में 'भ्रमण वृत्तान्त' अधिक प्रामाणिक माने जा सकते हैं। उन-उन समयों में चलने वाले सिक्के, शिलालेख और ग्रन्थों के अन्त में दी गई प्रशस्तियां-इन सभी वस्तुओं द्वारा किसी भी वस्तु का निर्णय करना कठिन होता है जब कि उन-उन समय के 'प्रवास वर्णन' इन कठिनाइतों को दूर करने के सुन्दर साधन के रूप में काम आता है। इन्हीं कारणों से आधुनिक लेखकों को तत्कालीन स्थिति सम्बन्धी कोई भी निर्णय लेने में स्वदेशी या परदेशी मुसाफिरों के 'भारत यात्रा वर्णन' पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। साथ ही उन यात्रियों द्वारा लिखित सामग्री सत्य है, प्रामाणिक है, मानना पड़ता है।' पूर्वकालिक जैन साधुओं ने गुजरात के इतिहास लेखन में उत्कृष्ट योगदान दिया है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है:
१. विविध तीर्थों का परिचय २. निबन्ध ३. महान पुरुषों का जीवन परिचय
वैसे ये सभी पुस्तकें धार्मिक दृष्टि से लिखी गई हैं फिर भी इनमें मुख्यतः गुजरात के सांस्कृतिक इतिहास से सम्बन्धित परिचय अच्छी तरह निकाला जा सकता है। साथ ही अनेक बार ये राजकीय परिचय भी दे सकते हैं। कभी-कभी तो राजकीय घटनाओं की सत्यता के समर्थन में ये ग्रन्थ उपयोगी मिद्ध होते हैं । इन पूर्वकालिक जैन साधुओं के समग्र साहित्य के बारे में पहले विस्तृत परिचय दिया जा|चुका है।' भोगीलाल सांडेसरा ने' और जिनविजय ने उनके बाद के साधुओं का इतिहास निरूपण में योगदान का वर्णन किया है। अतः अब यहां आधनिक जैन साधुओं ने गुजरात के इतिहास निरूपण में क्या योगदान दिया, वह देखें।
आधनिक जैन साधुओं की पुस्तकों को सामान्यतः तीर्थस्थानों का परिचय, अभिलेख, प्रभावकारियों के चरित्र, रास-संग्रह, इतिहास आदि विभागों में रखा जा सकता है। १. तीर्थ स्थानों का परिचय (यात्रा-वर्णन):
आधनिक जैन साधुओं के ग्रन्थों का बृहत्त-भाग इसी के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार के पुस्तकों के लक्षण देखने से कहा जा सकता
१. 'मारीकच्छ याना', प्रस्तावना, पृ० ११ २. मनसुख कीरतचन्द मेहता, 'जैन साहित्य नो गुजराती साहित्य मां फाड़ो', द्वितीय गुजराती साहित्य परिषद् का विवरण और 'जैन साहित्य', तृतीय गुजराती
साहित्य परिषद् का विवरण। ३. 'जैन आगम साहित्य मां गुजरात' (१९५२) और 'महामात्य वस्तुपालन साहित्य मण्डल तथा संस्कृत साहित्य मां तेमनो फाड़ो' (१९५७) ४. 'प्राचीन गुजरात ना सांस्कृतिक इतिहास नी साधन सामग्री' (१९३३), पृ० १० से ३६ । इसमें विक्रम की ग्यारहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक की अनेक जैन
कृतियों का उल्लेख है। ५. इस लेख में जैन साधुओं के प्रकाशित मान गुजराती पुस्तकों का समावेश किया गया है।
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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